ढलती शाम को
खेत से लौटकर मल्लप्पाजी ने
पुलकित मनवाली।
श्वेतवर्णी मृगनयनी
काले घने केश वाली
प्रफुल्लित वदनी
अर्दांगिनी श्रीमति को
बड़े गौर से देखा
और पूछा
प्रिये! आज चेहरे पर
अपूर्व चमक कैसी?
क्या कुछ विशिष्ट
उपलब्धि हुई है?
यदि नहीं तो
दीपक की लौ-सी
यह मुख पर रौनक कैसी?
सुनते ही सहज भाव से
मुखरित हुई
माँ जिनवाणी का ही यह अनंत उपकार है,
आज स्वाध्याय में मानो
हुआ स्वयं से साक्षात्कार है
या यूँ कहूँ यह आप ही की
सन्निधि का परिणाम है,
आपकी सात्विकता नैतिकता से ही
हुआ यह काम है।
जो आपने धर्म के लिए
मुझे सदा स्वतंत्रता दी,
गृह में ही स्वर्ग-सी शांति
और अच्छे मित्र-सी निकटता दी।
फिर भला
चेहरे पर रौनक क्यों नहीं आयेगी!
चंदा है तो चाँदनी
क्यों नहीं छायेगी!
अपने लिए प्रशंसात्मक शब्द सुनकर
ग्रीवा नीची किये
बैठे ही थे कि
प्रश्नायित आँखों से
पूछ लिया
स्वामी!
आने वाली संतान को
दया अहिंसा के पथ पर
जन हितकारी
निज उपकारी
आत्मोन्नति के सोपान पर
क्या चलने की प्रेरणा दोगे?
मुनि, आर्यिका होने में
पथ प्रदर्शक बनोगे?
कहीं उसके राग में
रागी होकर उसे
विचलित करने का
प्रयास तो नहीं करोगे?
सुनते ही बोले वह
यति बनने की नियति को
भला कौन थाम सकता है...
समय और समुद्र की लहरों को
भला कौन बाँध सकता है!
उसी प्रकार...
मरण और वैराग्य को
कौन रोक सकता है!!
फिर भी मोही को
मोह भाव आता है,
भविष्य ही बतायेगा
कौन क्या करता है।
कहकर यह
धीरे से
दूसरे कक्ष में जाकर
बैठ गये...
प्रातः होते ही आया एक सौदागर
हाथ में एक झूला लेकर
सुंदर गूँथे हैं जिसमें
छोटे-बड़े आकर्षक मोती
नगों की लटकती लड़ी
बीच-बीच में घूँघरू
देखता ही रहे एकटक जिसे शिशु
मंगल का सूचक है यह
पुण्य पुरुष के जन्म का प्रतीक है यह।
आज दोपहर से ही
वदन पर हल्की -सी
वेदना की रेखाएँ हैं,
प्रसव काल
निकट जानकर
श्रीमंती के मन में
अनेकों कल्पनाएँ हैं,
किंतु चेतना में
वेदना के क्षणों में भी
शुभ रूप भावनाएँ हैं।
प्रतिकूल पलों में भी
पवित्र विचार बनाये रखने की
अदभुत क्षमता
पल-पल
मन की प्रसन्नता
जन्मजात ही पाई है।
पूर्व भव से पुण्य की
सौगात लेकर ही
यह आई है।
तभी तो
इन्हीं के गर्भ में
अवतरित हुआ
यह पावन पूत…
वैसे, अनेकों स्त्रियों ने
उस पल गर्भ धारण किया था
पर, यह सौभाग्य किसी और को
क्यों नहीं मिल पाया था?
क्योंकि जिस जनक-जननी के
आचार-विचार शुद्ध होते हैं
उन्हें ही ऐसे
सुयोग प्राप्त होते हैं।
आज कमलबंधु
अपने दैनिक कार्य को
शीघ्र ही पूर्ण कर
छिपना चाहता है,
उज्ज्वल धवल-सी
चाँद की चाँदनी से
भयभीत-सा लगता है।
तभी तो
स्वयं को प्रभावहीन देख
अपने प्रताप और प्रकाश
इन दो पुत्रों को
साथ ले
चला जा रहा है...
उसे आभास हुआ कि
आज अर्द्धनिशा में
एक और भास्कर
प्रकाशित होने वाला है,
मैं तो बाहर में ही
कुछ देश में ही
फैलाता हूँ प्रकाश,
किंतु
वह तन-मन के पार
चेतन के असंख्य प्रदेशों में
भरने वाला है
चैतन्य ज्ञान प्रकाश।
यह जानकर
कहीं मेरा और मेरे अंश का
उपहास न हो जाए,
इस शंका से
झटपट भाग रहा है
अस्ताचल की ओर...।
तभी
निशा के चमकते गाल देख
ज्ञानधारा की एक लहर ने पूछा कि
आज तुम इतनी
दीप्तिमान क्यों दिख रही हो?
उल्लसित अधरों से
उमंगायित वचनों से
बोली वह…
“यह जो धुति
तुम्हें दिखाई दे रही है
वह आगत का स्वागत करते समय
उसी की कांति का
पड़ा प्रभाव है,
यद्यपि अभी वह
प्रगट नहीं हुआ है
फिर भी उसके
प्रगटन के चिह्नों का
मुझे कुछ आभास हुआ है
तभी तो
मन ही मन मैंने
उसका स्वागत किया है।”
देश जकड़ा है परतंत्रता की बेड़ियों में
परदेशियों का ही चल रहा इन दिनों प्रशासन
क्रूरता से कर रहे जन-जन पर शासन
पीड़ित है जनता
सिसक रही है मानवता
औरों के लिए जीने की
उसके दुख दर्द पीने की
कहाँ है फुर्सत उन्हें?
तभी तो भारत की धरा ने
दर्दीले मन से पुकारा है
गुलामी का दर्द अब
सहा नहीं जा रहा है
आओ, कोई तो आओ!
सुनकर वेदना का स्वर...
अवतरित हुआ है
दयासिंधु करुणा का सागर।
विश्वास है जन्मते ही उसके
अहिंसक पावन पगतलियों के स्पर्श से
भारत हो जायेगा स्वतंत्र।
ज्यों-ज्यों निशा
गहराती जा रही है
चन्द्र-चाँदनी की धवलता
त्यों-त्यों बढ़ती जा रही है,
नयनों से नींद
दूर होती जा रही है
क्योंकि
प्रसव पीड़ा बढ़ती जा रही है,
किंतु पीड़ा में भी चल रही है ईडा
अधरों के स्पंदन से
वह जाप कर रही है,
वैखरी से उपांशु
उपांशु से मानस की ओर आते हुए
सूक्ष्म जाप में लीन हो गई
और
चन्द्र विमान के चैत्यालय में
स्थापित बिंबो के
चिंतन में खो गई।