Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 69

       (0 reviews)

    सीकर जिला ग्राम ‘राणोली

    पिता चतुर्भुज, मात घृतवरी

    द्वितीय पुत्र होकर भी थे अद्वितीय

    अधर के नीचे तिल, कल था कमनीय

    रंग गोरा होने से लोग कहते भूरामल

    परम स्वाभिमानी परिणामों से निर्मल,

    दूर करने को कर्ममल ।

    चल पड़े निष्क्रमण पथ की ओर

    पाने भव-सिंधु का छोर

    ऐसे हैं गुरु ज्ञानसागर

    तो शिष्य क्यों न हो विद्यासागर!!

    जिनका ज्ञानोपयोग

    निजात्मा का करता है स्पर्शन

    फिर भला क्यों न हो

    सविद्या का वर्षण!

    जितने-जितने

    स्वानुभव के समंदर में

    डूबते चले गये,

    उतने-उतने ज्ञानार्णव की गहराई में

    विद्या-मोती मिलते गये।

     

    आगम के अभ्यास से

    मात्र स्वयं के दोष दिखते हैं ऐसा नहीं

    मिटते भी हैं,

    मात्र सुकृत बँधते हैं ऐसा नहीं

    संवरित होकर दुष्कर्म झरते भी हैं।

     

    फिर प्रबल स्वात्म रूचि

    लगन निज प्रतीति स

    तत ज्ञानाभ्यास

    गुरु की महत् कृपा हो साथ

    तो कहना ही क्या...

    लोहे के चने चबाने जैसे न्यायशास्त्र भी

    लगने लगे मिष्ट मोदक सम,

    ‘प्रमेयरत्नमाला' प्रमेयकमलमार्तण्ड

    अष्टशती अष्टसहस्री को भी

    मिष्टसहस्री मानकर हृदय-पुस्तिका पर

    उतार लिया सहज

     

    प्रतिभा-संपन्न तीक्ष्ण बुद्धि शिष्य लख

    गुरू हुए अति प्रसन्न...

    कारण स्पष्ट है

    जहाँ इष्ट है वहाँ कष्ट नहीं

    जिससे संतुष्ट हैं उससे रुष्ट नहीं

    तो शिष्य मुनि भी

    ज्ञान को पुष्ट करते

    गुरु को संतुष्ट रखते।

     

    दर्शन के गूढ़तम रहस्य जानने में सक्षम

    प्रश्न करते गुरु

    तो समाधान करते शिष्य

     

    पढ़े अध्यात्म ग्रंथ 'समयसार

    'नियमसार’ और ‘पावन प्रवचनसार

    ‘अष्टपाड़', 'पंचास्तिकाय'

    रत्नत्रयधारी ने पंचरत्न ग्रंथ का

    सम्यक् निग्रंथपन का

    किया आस्वादन,

    सूक्ष्मता से चउ अनुयोग का

    किया अध्ययन।

     

    जीत लिया मन ज्ञानी गुरू का

    मीत बन गया शिष्य गुरु का

    अनंत प्रीत का गीत गूंजने लगा

    आनंद का झरना फूटने लगा,

    गुरू-आज्ञानुसार चलने वाला।

    पात्र बनता है पुरस्कार का

    गुरू को अपने अनुसार चलाने वाला

    पात्र बनता है भव-भव तिरस्कार का।

     

    जब शिष्य स्वयं पंचमहाव्रतधारी हैं।

    चारित्र की प्रतिमूर्ति

    अहिंसा के पुजारी हैं,

    अपने-परायों के भेद से परे

    सर्व जीवों से आत्मीय भाव धरें,

    जीवन है निश्छल

    तेरे-मेरे के भाव से दूर प्रतिपल

    तब असत्य होना या असत्य बोलना

    लेश मात्र भी रहा कहाँ इनमें!!

     

    संयोग-वियोग के भाव से परे

    निजात्मा ही अपना है।

     

    शेष सब सपना ही सपना है,

    यह मान लिया जिनने

    अचौर्य भाव प्रगट हो गया जिनमें

    वस्तु और व्यक्ति के प्रति निर्मोही

    मिट्टी, हवा, पानी के सिवा ।

    बिना दिये न लेते एक तिनका भी

    स्वानुभूति रमणी में करते रमण

    शील-झील में तैर...

    करते आनंद का अनुभवन।

     

    भाता जिन्हें निज चैतन्य का भोग

    लक्ष्य है जिनका निष्काम योग

    वे भला भ्रम में क्यों पड़ेंगे... ब्र

    ह्म में लीन क्यों न रहेंगे?

    किञ्चित् भी मूर्च्छा नहीं जिन्हें

    चिंतित वे क्यों रहेंगे?

    मूर्छित नहीं पर वस्तु में

    परिग्रह का आग्रह नहीं जिनमें,

    नौ ग्रह क्यों करें परेशान उन्हें!

    गृह ही तज दिया जिनने...

    नूतन चिन्मय गृह में प्रवेश

    पा लिया है जिनने,

    अपने आप में परिपूर्ण हैं।

    ज्ञान घन से सघन

    अन्य का प्रवेश अणुमात्र भी नहीं जिनमें।

     

    धन्य हैं शिष्य मुनिव्रत गुणधारी

    यह सब गुरू-कृपा की है बलिहारी

    शिष्य है इतना महान

     

    तो गुरु की महानता का कहना ही क्या!

    शिष्य ही है अति गुण-धाम

    तो दाता गुरु के गुणों का कहना ही क्या!!

     

    दिन के प्रकाश में

    मुक्ति की आस ले

    देख चार हाथ जमीं

    प्रत्येक कदम पर

    सर्व जीवों पर आत्मीयता अति

    यही है इनकी ईर्या समिति'।

     

    हित-मित-प्रिय वचन

    स्वयं पर पूर्ण अनुशासन

    अमृतपायी अमर भी

    करते हैं जन्म-मरण,

    मगर श्रवण कर

    इनके अमृत वचन

    मिटा देते भविजन

    संसार का परिभ्रमण,

    गूढ़ रहस्य के उद्घाटक

    अनेकों उलझे प्रश्न

    सुनकर इनकी वचनावली

    सुलझते झट

    ऐसी है इनकी ‘भाषा समिति'।

     

    निराहार स्वरूप की लगन ले

    अनासक्ति से निर्दोष आहार ले

    नीरस में भी

    स्वानुभूति का रस घोल

    सरस बना लेते

     

    मोक्षनगर तक जाने के लिए

    तप वृद्धि कर देह टिकाने के लिए

    ‘एषणा समिति' से करते आहार।

     

    उपकरणों को उठाने में

    करते प्रथम अवलोकन

    फिर करते परिमार्जन

    ‘आदाननिक्षेपण समिति

    पालन करते यूं…

     

    मलमूत्र आदि का

    प्रासुक निर्जन्तुक स्थान पर

    करते विसर्जन,

    पीड़ा न हो किसी जीव को

    प्राणी मात्र के प्रति है प्रीति

    इसीलिए पालते ‘प्रतिष्ठापन समिति'।


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...