रात के गहन सन्नाटे में
सुखद रात्रि के अंतिम प्रहर में,
घूमते हुए चक्र की आवाज़
जरूर कोई तो छिपा है राज़...
चक्र का दू...र से आना।
आकर सहसा कक्ष में ठहर जाना,
मेघों के पीछे से दो तीर्थंकर दिखना
और उनके पीछे
हौले-हौले आते दिखना
दो मुनि ऋद्धिधारी
जगत हितकारी,
परम उपकारी।
स्वप्न में ही झुक गया माथ
आहार देने की ज्यों ही बढ़े हाथ,
इतने में ही सुमधुर जय-जय की ध्वनि से
हो गया आज का सुप्रभात...।
इसी रात मल्लप्पाजी ने भी देखा
एक शुभ स्वप्न...
वे बैठे हैं खेत में आम्र तरु के नीचे
इतने में, दहाड़ता हुआ आया एक सिंह
आते ही निगल गया उन्हें
यह स्वप्न भी था मंगलसूचक
मल्लप्पा जी के वीर मरण का प्रतीकात्मक।
मराठी में कहावत है-“ मनी बसे स्वप्ने दिसे''
जैसे मन के भाव रहते हैं वैसे स्वप्न दिखते हैं।
इधर...स्वप्न का फल ज्ञात हुआ
कि यह पुण्यधर संसारचक्र में फँसेगा नहीं
प्रभु-पथ का अनुगामी बन ।
मोह-माया के बंधन से मुक्त हो
गृह में रहेगा नहीं।
कोख में समाया है व्यक्तित्व महान
वर्तमान के मानो वर्धमान,
उसी के
अदभुत प्रभाव से
आज का मंगलमय प्रभात
रवि को दे रहा है अपूर्व प्रकाश।
तभी तो...आज दिनकर
हर दिन की अपेक्षा
अत्यधिक है धुतिमान,
आगंतुक ध्रुवपथगामी का
कर रहा है सम्मान।
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