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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 15

       (0 reviews)

    इस शांत वातावरण में

    लिख गई लेखनी कि

    जो पंचेन्द्रिय विषयों को ज़हर जान

    निजानंद अमृत का करके पान

    त्यागी बनने वाला हो

    वैरागी होने वाला हो

    उसे भला बिच्छू का ज़हर

    कब तक

    पीड़ित कर सकता है।

    आत्मिक सौख्य लहर से कब तक

    वंचित रख सकता है!!

    सो

    वेदना विस्मृत कर वह

    खेलकूद में लग गया,

    आखिर

    एक दिन उसने अपने

    दयालु होने का

    प्रत्यक्ष परिचय दे ही दिया।

     

    अचानक

    घर के कोने के बिल में

    फँसा चूहा

    पीड़ा से कराहता देख

    उसे उठा लिया हाथ में

    तन में लगे जीवों को

    धीरे से दूर किया पल में

    स्वस्थ हुआ मूषक।

     

    एक दिन बिल्ली कबूतर पर झपटी

    ज्यों ही देखा विद्याधर ने

    हृदय से करुणा उमड़ी,

    दौड़ पड़े उस तरफ

    जोर-जोर से चिल्लाने लगे

    निडर होकर भगाने लगे,

    बिल्ली ज्यों ही डर के मारे भागी

    तब

    करूणा से आप्लावित

    दोनों नन्हें हाथों से

    सावधानी से पकड़कर

    कबूतर को ले आये घर में…

     

    सुनाने लगे

    मंत्र णमोकार

    धीरे-धीरे फेरते हुए हाथ

    करुणा से उसे निहारकर

    ज्वार के कुछ दाने डालकर

    कहने लगे कबूतर से-

    “डरो मत,

    मैं हूँ ना”

    खा लो इसे...

     

    इतने में ही पड़ौसन हीरा

    देख विद्या की करूणा

    बोल पड़ी

    “अरी! श्रीमंति

    तेरा बेटा बनकर आया है मसीहा

    यह कोई सामान्य नहीं आत्मा

    दूसरा रूप है

    महावीर का।''

    सुन विद्या की प्रशंसा

     

    हर्षित हो आया

    हृदय उसका...

     

    देखती रही टुकुर-टुकुर

    रहा न गया उससे

    उठाकर बाँहों में

    देकर सौ-सौ आशीष

    बोली भाव विभोर हो

    “आज की भाँति सदा

    जीवों की रक्षा करते रहना,

    जिनशासन के मूलभूत सिद्धांत स्वरूप

    अहिंसा धर्म की पताका

    यूँ ही फहराते रहना...."

    अपनी प्रशंसा सुन माँ से

    बिना कुछ कहे सहज भाव से

    बाँह छुड़ाकर

    भागा घर से बाहर

    मित्रों की टोली में जा

    खेलने लगा।

     

    इस तरह रोज-रोज कुछ घटता,

    मल्लप्पाजी का माथ गर्व से

    ऊँचा उठ जाता,

    नित नये कार्य करना...

    चिंतन की गहनता से

    आयु की सीमा से परे

    पुरानी लीक से हटकर

    नूतन पथ चुनना

    स्वभाव-सा है उसका।

     

     

    ईंट का जवाब पत्थर से

    तीर का सामना तलवार से

    मान का बदला अभिमान से

    क्रोध का उत्तर भयंकर क्रोध से

    छल का बदला छल से

    ये सब पुराने मार्ग हैं,

    चल चुके इस पथ पर

    अनेकों अब तक

    लगता है इसलिए सुगम-सा...

    चहल-पहल अत्यधिक दिखने से

    सुरक्षित-सा लगता है,

    किंतु पीलू ने चुना है दुर्गम पथ

    पावन पथ…

     

    तभी तो

    मान के सामने विनम्रता

    माया के सामने सरलता

    लोभ का शुचिता से

    कठोरता का कोमलता से

    कृपणता का उदारता से

    और

    क्रोध का बोध भाव से

    सामना करना ठान लिया है,

    छोटी वय में

    चोटी की बात करके

    माता-पिता को एहसास करा दिया है

    कि

    अब ‘विद्या’ विद्यालय जाने योग्य हो गया है।

     

    अंगुली पकड़ पीलू की

    पिताश्री दिखाने ले गये विद्यालय

    देखा हर कक्ष को

    प्रधानाध्यापक और अनेक विद्यार्थियों को,

    अच्छी लगी ग्राम्य अंचल की

    वह प्राथमिक शाला।

    पूछने पर उसका नाम

    ओजस्वी अंदाज़ में

    मधुर स्वर में

    शिक्षक का अभिवादन कर

    दे दिया अपना परिचय

    ‘रि नन्न हेस विद्याधर हिदे।'

     

    समय चुपचाप

    अपने कदम आगे बढ़ा रहा था...

    और

    विद्याधर विद्यामंदिर में प्रवेश कर चुका था…

    प्रथम कक्षा में

    प्रवेश पाते ही

    बड़े-बड़े छात्रों का प्रिय बन गया था,

    कमरे की दीवारों से

    उसकी खनकती आवाज़ छनकर

    कोई भी छात्र सुनता तो

    मंत्र मुग्ध हो जाता,

    बोल पड़ता अनायास ही

    अरे! यह तो 'गिनी' है 'गिनी'

    तोते-सी मधुर सुरीली आवाज़ के कारण

    अब वह 'पीलू' से हो गया ‘गिनी।’

     

     

    शाला से आते ही

    गृहकार्य में दत्त-चित्त माँ का

    पकड़कर पल्लू

    दे दिया हाथ में बस्ता

    जिसमें थी मात्र स्लेट पेन्सिल,

    बोली-पीलू!

    आज क्या सीखकर आये हो?

    स्लेट पर बंकिम दृष्टि डालकर बोले

    अ से आ बनाना सीखा

    सुन न पायी वह

    पुनः पूछने पर बोले

    छोटे से बड़ा बनाना सीखा

    झट समझ गई वह

    शब्दों में छिपे उसके

    भावी महान व्यक्तित्व को

    और

    मुख पर स्मित हास्य लिए

    गाल चूमते हुए बोली

     

    “लगने लगा है

    तेरी रहस्य भरी इन बातों से

    एक दिन अवश्य तू!

    छोटे से बहुत बड़ा बन जायेगा,

    अपनी गोद में भी बिठा नहीं पाऊँगी तुझे

    अपने आँचल में भी छिपा नहीं पाऊँगी तुझे,

    हो जायेगा ऐसा

    गगन-सा विराट...

    अपने ही मन का सम्राट।''

     

     

    तभी ममता भरी दृष्टि से देखा

    बाल लाल के गाल

    लाल-लाल दिखे...

    लिटाकर थपथपाने लगी

    बहुत थक गये हो

    कर लो कुछ विश्राम,

    माँ का लाड़-प्यार पा

    बोले बचकाने अंदाज में...

    बहुत थक गया हूँ माँ!

    थोड़े पैर दबाओ ना

    अरूणाई छिड़काती नयनों से

    डाँटते हुए बोली

    दिनभर दौड़ते क्यों हो इतना

    क्या शांत रहकर

    काम नहीं चल सकता?

     

    जीवन लयबद्ध जीना सीखो

    शक्ति का अपव्यय नहीं

    संचय करना सीखो।

     

    देखो, बेटा!

    नदी में लय है।

    पवन में लय है।

    निर्झर में लय है।

    प्रकृति के कण-कण में लय है।

    शब्दों में लय हो तभी गीत बनता है।

    व्यवहार में लय हो तभी मीत बनता है।

    आचरण में लय हो तभी जीत पाता है।

    करतल में लय हो तो

     

     

    मधुर संगीत झंकृत हो उठता है।

    पैरों में लय हो तो

    चाहे कितनी ही दूर हो मंज़िल

    वह गंतव्य तक पहुँच ही जाता है।

     

    आँखें न बूंदो मेरे लाल

    सुनो! लय में लालित्य है

    लय में साहित्य है,

    लयबद्ध जीवन में यदि

    शक्ति पूर्वक हो भक्ति

    तो दिलाती है अवश्य मुक्ति।

    इसीलिए बेटा!

    लय का विलय न हो।

    सुन रहे हो ना मेरी बात?

     

    आँखें खोलकर

    स्वीकृति के रूप में

    सिर हिलाते हुए

    स्वयं माँ के पैर दबाने लगे...

    भूल हो गई माँ!

    क्षमा करना प्यारी माँ!

    और

    भूल की क्षमा के रूप में

    दो बूंद...

    अश्रु बरस पड़े।

     

    तब से स्वयं का दुख सहना कर लिया तय

    किसी से कुछ नहीं कहना हो गया निश्चय

     

    आज घर में चौका लगा है

    छोटे बच्चों को अंदर आना मना है।

     

     

    कुत्ता, बिल्ली आदि को भगाने का काम सौंपा है,

    ज्यों ही शुरू हुआ आहार

    खिड़की से छिपकर देख रहे विद्याधर

    अहा! कितने हैं यह शांत

    तभी तो कहलाते हैं यह संत!

    मुझे जो- जितना दिया है माँ ने काम

    निरंतराय हो गया है आहार दान

    इतने में ही संतोष है मुझे।

     

    श्रावकाचार ग्रंथ में लिखा है

    दाता के सात गुण में

    संतोष भी एक गुण है,

    छोटे से गिनी में

    अभी से आ गया यह गुण है।


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