बहती सरिता को कोई रोक न पाता
आसमान को आँचल में कौन बाँध पाता !
श्रावक मनाते निवेदन करते
पलक पावड़े बिछा देते,
पर गुरू-पद आगे बढ़ जाते
रूआँसे श्रावक घर लौट आते...
गोंदिया बालाघाट से पधारे घंसोर
चमत्कार हो गया
जनता हुई आत्म विभोर...
वर्षों से खारे जल के नाम से बदनाम था कूप
आज मिश्री-सम मिष्ट जल में हुआ परिवर्तन,
हुआ जब आहार गृह में
चरणोदक को डाला जो कूप में
उधर मीठे जल के स्रोत फूट पड़े
ज्ञात होते ही कूप की ओर लोग दौड़ पड़े...
जिनके स्पर्श से प्राणी का क्षार हृदय भी
हो जाता क्षीर-सा
फिर भला पानी का क्षारपना
क्यों न हो क्षीर-सा!!
जबलपुर वासियों का अंतर्नाद करके श्रवण
कहीं न रूके संत के चरण
जिधर देखो उधर
दुल्हन-सा लग रहा महानगर
बच्चों में कौतुहल, श्रावकों में उत्साह
नारियों की उत्सुकता का कहना ही क्या!
ज्यों वीर के आगमन की चंदना देख रही राह...
घर-घर में आबाल वृद्ध-गण। ‘
विद्यासागर'- ‘विद्यासागर' गा रहा कण-कण...
चल पड़े चरण पिसनहारी मढ़िया की ओर…
सभी जिनालय का करके दर्शन ।
आ विराजे गुरुकुल- भवन
मढ़िया का समूचा परिसर
भर गया सौभाग्यवती की गोद की तरह।
चतुर्थकाल के दिखने लगे
नज़ारे सैकड़ों की तादाद में लगे चौके
ऐसा लगा मानो
आश्विन की नयी सुहानी धूप में
वैशाख की सन्नाटे-भरी तपती दोपहरी में
उमड़ आये हों घटाटोप बादल-दल।
गुरु वचनामृत सुन श्रोता धन्य!
व्यवस्थापक स्वयं को मानते धन्य!
नगर के नर-नारी सभी धन्य!
प्रवचन में यथार्थ ज्ञान के भंडारी
शांत भाव के अधिकारी
गुरू-मुख से अध्यात्म बरसने लगा...
चातक की भाँति टकटकी लगाये
श्रद्धा से जो श्रवण करने आये
उन श्रोताओं का मिथ्यात्व विनशने लगा।
यथार्थ ही है।
ज्ञानी स्वानुभव के समंदर में
आनंदानुभूति-जल को पीकर होते तृप्त,
अज्ञ संसार-समंदर में
वैकारिक जल को पीकर
होते हैं संतप्त।
स्व तत्त्व की समझ से
पर तत्त्व की परख से
भव्यों का समकित सुमन विकसने लगा
जीवन का सार दिखने लगा ।
भक्तों को यह ज्ञात हो गया कि
आत्मनिधि-सी कोई निधि नहीं,
गुरू समागम-सी कोई सन्निधि नहीं,
अन्य निधि है पराधीन, आत्म निधि है स्वाधीन
पराधीनेषु नास्ति शमसंपत्तिः''
दिखलाई गुरु ने जो निधि ।
मिलती इसी से स्वात्मोपलब्धि!
इस प्रसंग में पंक्तियाँ उभर आईं ज्ञानधारा में
गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते ज्ञानलोचनः"
इसी मढ़िया की सौंधी माटी पर
गुरू की अनुभूति भरी लेखनी
ज्ञान की स्याही में डूबकर
आनंद पृष्ठों पर उकेर कर
प्रगट हो आयी 'मूकमाटी' के रूप में।
रात के गहन सन्नाटे में
भाव-समुद्र लहराता।
एकाकी अपने आप में
मन गहन चिंतन में डूब जाता...
प्रातः तरणि” के आने पर
शब्दों के पहनाकर अंबर
उतार लेते स्मृति को पृष्ठों पर...
प्रत्येक दिन नव्य नूतन कविताएँ...
लेखनी की नोंक पर क्रीड़ा करते शब्द
भावों से भरी भाषा की विविध भंगिमाएँ
पढ़ते ही मन होता तृप्त,
माटी के मिष चेतना को
मिल जाता बोध!
मूक होकर भी है मुखरित
महाकाव्य जगाता है अंतर्शोध
आत्मोन्नति का कारण अनूठा काव्य है यह!
जन-जन के लिए श्राव्य है यह।
कर रहे थे जब
पनागर से जबलपुर विहार
भक्तों की भारी भीड़ में
‘आचार्य भगवंत' की दाहिनी कोहनी में
लग गई तेजी से चोट
तत्क्षण आ गई सूजन
सारे भक्त गण हो गए बेचैन
अपनी लापरवाही पर कर रहे पश्चाताप,
किंतु निर्मम गुरुवर के मन में
किञ्चित् भी नहीं ताप
मुख से निकली नहीं 'आह'!
देह-नेह के त्यागी चलते चले जा रहे थे
सहजता से मढ़िया जी तक आ गये थे
हाथ की ललाई देख लगा
निश्चित ही हड्डी टूटी है
ऐसी स्थिति में भी लेखनी ले
मूकमाटी की लिखाई चल रही है...
एक कवि लेखक से रहा न गया
मंद स्वर में आखिर वह कह गया
गुरूदेव! थोड़ा आराम दे दो हाथ को
मुस्कुराते हुए बोले
माना कि पर है यह गात
भले ही साथ न दे यह हाथ,
लेकिन चेतना है जब तक मेरे साथ।
परम के विषय में लिखता रहूँगा
निज के लिए लखता रहूंगा।
तभी सामायिक के काल में
एक अविवेकी भक्त ने
हल्दी-चूना लगा, कर दी सिकाई
सामायिक में लीन थे मुनिराई।
बाद में देखा संघस्थ शिष्यों ने
बड़े-बड़े फोले पड़ गये हाथ में,
जल गई चमड़ी वेदना थी भारी
पर आचार्य श्री के चेहरे पर
एक भी सलवट नहीं आई
धन्य हो! ऐसे निर्मोही संत!