इधर
विद्याधर के पिता श्री मल्लप्पाजी
इन दिनों कहलाते ‘मुनि मल्लिसागरजी
जो कभी खिलाते थे गोदी में विद्या को
हो गये आज जगत्पूज्य श्री विद्यासागरजी वो,
तरस गईं अँखियाँ उन्हीं के दर्शन हो ।
दर्शन के लोभ का कर नहीं पाये संवरण
चरण वंदना को हुए तत्पर...
ज्यों ही आचार्य श्री का किया दर्शन
हृदय में हुई आत्मीय पुलकन
सारी प्रकृति मुस्कायी
अद्भुत था वह क्षण!
दोनों शिवपथगामी देख एक दूजे को
डूब गये आनंद-सर में...
पुत्र हैं श्रमणाचार्य
पिता हैं निग्रंथ मुनिराज,
दुर्लभतम इन पलों में
मौन साधे गहन साधक दो...
अनकहे ही बहुत कुछ कह गये एक दूजे को
मुनि श्री ने आचार्य श्री के चरण छुए!
हृदय से अति आनंदित हुए।
चरण-रज श्रद्धा से शीश लगाए
आचार्य श्री आशीष का हाथ उठाए
अहा! अद्भुत मिलन का दृश्य
प्रकृति ने समय की तूलि से लिख दिया काव्य
धरा-पृष्ठ पर लिखा लेख हुआ अमर
धरा मुस्कायी, आह्लादित हुआ अंबर!
विद्वान् होकर भी अति विनम्र
उत्तम अध्यात्म साधना, देह कृश
यशकीर्ति के बने शिलालेख
जैनेन्द्र सिद्धांत कोष' है उन्हीं की देन
ऐसे सुप्रसिद्ध 'जिनेन्द्रवर्णी जी'
ग्रीष्म काल में आये ‘ईसरी'
क्षुल्लक दीक्षा की रखी भावना
आचार्य श्री ने विधिपूर्वक संस्कार देकर
दीक्षा दे नाम रखा ‘सिद्धांतसागर।
तभी गुरु-चरण में ले सल्लेखना
करने लगे उत्तमार्थ अंतर्साधना
गंतव्य है जिनका निर्वाण
जहाँ न जन्म, न मरण का नाम,
केन्द्रित हुई निजात्मा में चेतना
सार्थक हुई समाधि साधना
गुरु-मुख से सुनते-सुनते अंतिम संदेश
निकल गये प्राण, देह रही शेष…
आचार्य श्री कभी कोटि सूर्य की भाँति
दैदीप्यमान लगते
तो कभी कोटि चन्द्रमा की भाँति
धवल व शीतल लगते
अनुकूल हो या प्रतिकूल
प्रत्येक परिस्थिति में
मनः स्थिति सहज रखते।
चातुर्मास स्थापना का पुण्यावसर
प्राप्त हुआ ईसरी को
लगे शिविर, हुआ सामूहिक स्वाध्याय
नये-नये जुड़े अध्याय...
सराक जाति उद्धार हेतु योजनाएँ।
एक साथ पाँच दिगम्बर दीक्षाएँ
मुनि मल्लिसागरजी'' का चातुर्मास य
हीं हुआ संपन्न।
तीर्थधरा का करके अंतिम दर्शन
विहार कर चल दिये
‘कलकत्ता' की ओर…
चलते-दिखते बाहर में
पर अंतर में स्थिर रहते,
बोलते-दिखते बाहर में।
पर भीतर में मौन रहते।
नगर प्रवेश के समय
ईर्यापथ समिति से
चलते-चलते कई मील
चार हाथ जमीं देखकर
जिनमंदिर यतिवर जा रहे थे...
पथ में गवाक्ष और छतों से
लोग झाँक रहे थे,
किंतु संत निज में मग्न थे
लक्ष्य की लगन ले
बोले सिर्फ एक ही बार
कहाँ है जिनमंदिर का द्वार?
साथ-साथ चल रहे अनेकों भक्त
देख उन्हें अचरज हुआ उस वक्त!
प्रातः अखबार में छपा मुख्य पृष्ठ पर
कलकत्ता में सबने देखा संत को,
पर संत ने नहीं देखा
किसी को
दृश्य देखते हुए दीखते,
किंतु देखते कभी नहीं
चलते जाते हुए दीखते
फिर भी चलते कभी नहीं'
संत-लिखित पंक्ति की।
हो आई मानस में स्मृति…
निज दृष्टा से बढ़कर अन्य दृश्य नहीं
निज ज्ञाता से बढ़कर अन्य ज्ञेय नहीं
कलकत्ता को देखना क्या?
कलधरों की कल-कल है यहाँ।''
कल अर्थात् शरीर का
कत्ता अर्थात् कर्ता
अचेतन शरीर का कर्ता,
निश्चय से हो नहीं सकता मैं
स्व भाव का ही कर्ता हूँ मैं
धन्य है इनकी दृष्टि
धन्य है इनकी प्रवृत्ति।
स्वयं राज्यपाल ने किया स्वागत,
किंतु मान-सम्मान से परे संत रहे सहज
अनेकों जैन-अजैन, महात्मा के कर रहे दर्शन
और महात्मा रहे स्वयं के दर्शक
कलकत्ता की कल-कल शांत है यहाँ
नाम है इसका बेलगछिया
शांति व सुंदरता का
संगम देख अनोखा
डूब गये स्वयं में...
अनंत की असीम गहराई में
समकित मुक्ता को निहारने लगे
निज दृष्टि से,
सद्ज्ञान ज्योति को और उजालने लगे
निज ज्ञप्ति से,
सच्चरित्र को अनुभवने लगे
निज वृत्ति से।
पल-पल बीतते प्रतिदिन
गुजर गये लो दस दिन...
कलकत्ता की धरा अधिक रोक न पायी
निर्बन्ध संत को,
सो कटक से उदयगिरि, खंडगिरि
आ पधारे दर्शन को।