सागर में ही 'षट्खंडागम' ग्रंथ की
प्रथम हुई वाचना
जिस ग्रंथ को लिखा
पुष्पदंत-भूतबलि मुनिनाथ ने
ताड़ पत्र पर काँटों की तूलि से...
पश्चात् सागर, जबलपुर
खुरई, पपौरा, ललितपुर,
जबलपुर में पुनः हुई वाचना
सिद्धांत ग्रंथ से धर्म प्रभावना मू
र्धन्य विद्वानों की उल्लसित हुई भावना।
डूबकर हृदय की गहराई में
करते गए मौलिक रचनाएँ,
एकमात्र लक्ष्य जिनका ।
बाह्य जगत से बचना है।
क्योंकि जानते थे संत कि
स्वार्थ के प्रभाव में परमार्थ गौण हो जाता है।
पैसे के प्रभाव में परमातम गौण हो जाता है।
मान के प्रभाव में औरों की वेदना गौण
क्रूरता के प्रभाव में संवेदना गौण,
और पर आकर्षण में
निजात्मा गौण हो जाता है।
इसीलिए लेखनी को बना मीत
लिखते रहते संत अंतस् के गीत,
विस्मृत श्रुत परम्परा को
पुनर्जीवित कर दिया...
अनेकों प्राणियों के अज्ञान को
कीलित कर दिया।
भक्त श्रोताओं ने
भव्य वाचना के समापन समारोह पर
ज्ञान-वैराग्य के अनूठे संगम
आचार्यश्री को ‘चारित्र चक्रवर्ती
उपाधि से विभूषित करना चाहा...
उल्लास उमंग का वातावरण था...
चारित्रचक्रवर्ती का लगाया जा रहा नारा
तभी ध्वनि विस्तारक यंत्र अपने समीप बुलवाया
पल भर में स्तब्धता छा गई
जनता मूक-सी हो गई…
गंभीर स्वर में मुखरित हुए आचार्यश्री
विज्ञ समझ रहा था मैं तुम्हें,
किंतु अविवेक का परिचय दिया तुमने
बिना मेरी अनुमति लिए ।
पद की घोषणा कैसे की तुमने?
परिग्रह है ये उपाधि
मोक्षमार्ग में बाधक है
पदानुभूति परानुभूति है।
इससे होती नहीं सम्यक् समाधि!
जन-समूह से क्षमायाचना कर
कहा अंत में
“पद से परतंत्र बनना नहीं मुझे
पर-कर्ता बनकर किसी का
किंकर बनना नहीं मुझे,
पर-दृष्टि रखकर दीन-हीन बनना नहीं मुझे
पर-कृपा का कर्ता होकर कृपण” बनना नहीं मुझे,
पद तो चाहिए मुझे भी।
लेकिन शाश्वत सिद्धपद का हूँ मैं प्रत्याशी
निराकार निज पद का हूँ अभिलाषी...