इस दुनियाँ में तीर्थंकर प्रभु के समान कोई भी दूसरा पुरुष तेजस्वी नहीं हुआ है, लेकिन उनके बताये हुए मार्ग पर चलने वाले साधु परमेष्ठी, आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी तेजस्वी पुरुषों की श्रेणी में आने वाले हैं। इनके तप के तेज से सूर्य का तेज भी फीका पड़ जाता है क्योंकि तप के माध्यम से आत्मा में चिपके हुए कर्म यूँ ही जल जाते हैं। सूर्य के द्वारा बाहर ही प्रकाश होता है। तप के द्वारा अंदर-बाहर प्रकाश ही प्रकाश होता है। इसलिए वह चारित्र के मार्ग पर चलकर अपने अंदर तप की धारणा कर अपने संपर्क में आने वाले संयमी जनों के अंदर भी वही तेज प्रकाश भर देते हैं। चारित्र की साधना, ज्ञान का अभ्यास, तपों की परिपालना ही तेजस्वी, तपस्वी बनाकर चलती आयी है। सूर्य के प्रकाश से तपन भी होती है, जो गर्मी के दिनों में वदन को जलन प्रदान करती है लेकिन तपों की तपन भी तपन के दिनों में भी शीतलता प्रदान करती है। सूर्य एक सीमा तक प्रकाश प्रदान करता है लेकिन तेजस्वी तप के द्वारा अनंतकालीन कर्मों को नष्ट कर अनंत जीवों में भी वही भाव भरकर अपनी ही राह पर लगाकर लगाते हुए नजर आते हुए देखा जा सकता है। सूर्य सुबह आता है दिनभर रहकर चला जाता है लेकिन तेजस्वी तपस्वी लगातार तप की आराधना में लगे रहते हैं। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने संघ के लिए, समाज के लिए, देश के लिए, इस सारे जहाँ के लिए यही संदेश प्रसारित किया हैं-अपने में लगो और तेजस्वी धीर-वीर कर्म विजेता बनो।