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मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता प्रारंभ ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ८७. सूत्रार्थ भावना भावित

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    पूर्वाचार्यों द्वारा आगम ग्रन्थों को सूत्रों का रूप प्रदान कर और अर्थों से परिपूर्ण कर बहुत बड़ा उपकार किया है। जैसे जलेबी छोटी-सी गोल-गोल दिखती है लेकिन रस से परिपूर्ण होती है। कहीं से भी चख लो वह स्वादिष्ट और मीठी ही लगती है वैसे ही सूत्रवचन हुआ करते हैं। वे सूत्र अर्थ से परिपूर्ण होते हैं। परमार्थ का रास्ता बताने वाले होते हैं। पाप से बचा पुण्य में लगाने वाले और पुण्य व पाप को छुड़ाकर मोक्ष पहुँचाने वाले कर्म निर्जरा करने वाले सूत्र बहु उपयोगी माने जाते हैं। आचार्य गुरुदेव अपने पूरे जीवन भर सूत्र की भावना से परिपूरित नजर आते हैं। जब भी कोई आदेश देते हैं तो वह सूत्र वचनात्मक ही होते हैं। श्रावकों के निवेदन पर हमेशा यही कहते हैं देखो! ना इसमें हाँ है न ही ना है। सूत्र वचन के पीछे यही ख्याल हुआ करता है, शब्द, अर्थ पूर्ण हो और अनर्थ से बचाकर निर्दोष चर्या की परिपालना की ओर ही गमन कराये कम बोलना, गम खाना और ज्यादा अर्थ को प्रदान करना या चिन्तन के लिए विचार के लिए आयाम करने के लिए लोगों के दिमाग के परिश्रम की उपज की फसल को लहलहाती देखकर सूत्रकार के लिए मन में आह्लाद प्रसन्नता होती है कि सूत्र के अर्थ को समझकर जीवन शैली में सुधार का रास्ता तय हो जाता है। सूत्र ही जीवन के कठिन मार्गों का सूत्रपात माना जाता है। सूत्र के अर्थों से शास्त्र का ज्ञान ही अपनी बिगड़ी हुई परिणति को सुधारने का एक साधन हुआ करता। है। आचार्यश्री के प्रत्येक शब्द में ऐसा ही अर्थ भरा पड़ा हुआ है।‘राख सो खरा' जब अग्नि जलती है तो चाँदी जैसी राख देती है। वही अग्नि की परीक्षा पर खरी उतरकर राख का विलोम शब्द खरा होता है। उनके साहित्य में दोहा शतकों में ऐसे ही अर्थपूर्ण दोहा लिखे हुए मिल जायेंगे जो पढ़ने के बाद गुनगुनाने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। इसी को कहते हैं अर्थपूर्ण दोहा पद्धति। ५० वर्षों से ऐसे ही कार्य के लिए गुरुदेव ने अपनी छवि को संघ एवं समाज के सामने रखकर ५० वर्षों से सफल सूत्र वाक्य कीर्तिमान स्थापित किया है।


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