बचपन के दिनों में विद्याधर के अन्दर रत्नत्रय के भावों का उत्पन्न होना पूर्व के जन्मों के संस्कारों का संयोग ही कहा जा सकता है। उन्होंने अपने छोटे भाई-बहनों को खेल-खेल में रत्नत्रय का सबक सिखाया। ये संस्कार इतने परिपक्व हुए कि वे विद्याधर से विद्यासागर बने। अपने दोनों छोटे भाइयों को रत्नत्रय की दीक्षा प्रदान कर बचपन का स्वप्न साकार किया। दोनों बहनों को ब्रह्मचर्य की दीक्षा प्रदान कर ब्राह्मी-सुन्दरी की परिपाटी को आगे बढ़ाया। इसी रत्नत्रय के प्रभाव, भाव का विकास क्रमशः होता चला गया। माता-पिता ने भी रत्नत्रय को धारणकर रत्न की महत्त्वता को प्रकट किया। यह रत्नत्रय का भाव, इतना विकसित हुआ, आप बाल ब्रह्मचारी साधक मुनि होने के नाते आपने अपने संघ में बाल ब्रह्मचारियों को स्थान प्रदान कर उस पवित्र शुद्ध विशुद्ध रत्नत्रय के महत्त्व को बढ़ाकर वीतराग भाव को परिपक्व किया। एक ऐसे रत्नत्रयधारी साधक आपश्री के करकमलों से दीक्षा लेने का भाव एक गृहस्थ के मन में भी आता है। मैं जब भी दीक्षा ग्रहण करूं तब भी ऐसे ही साँचे गुरु से भले ही दीक्षा न मिले लेकिन उनकी आज्ञा आदेश का एक संकेत भी जीवन में दीक्षा के भाव से परिपूरित ही होगा। कितने गृहस्थों ने गृह त्याग कर आपके श्रीचरणों में दीक्षा न मिलने पर समाधि के समय दीक्षा स्वीकार कर समाधिमरण धारण किया। जिन गृहस्थों को कुछ नहीं मिला तो उन्होंने आपसे देशसंयम धारण किया, जिन्हें और कुछ नहीं मिला उन्होंने अष्ट मूलगुण, अणुव्रतों को धारण किया। इन ५० वर्षों में संयम की परम्परा आराधना कर आराधकों को जन्म देने वाले आपश्री गुरुदेव हैं।