साधु जीवन में नीर-क्षीर विवेक की धारा बहती रहती है। जीवन के प्रत्येक कार्य को इसी आधार से सम्पन्न करते हैं। जैसे हंस होता है दूध में से पानी को अलग कर देता है और अपने मतलब की वस्तु दूध को ग्रहण कर लेता है। यह उसकी चौंच की विशेषता है। इसी तरह किसान धान्य को अनाज को ग्रहण कर लेता है। भूसा चारा को छोड़ देता है। ठीक साधु परमेष्ठी, आचार्य परमेष्ठी गुरुदेव इसी तरह की जीवन पद्धति के लिये प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। वे जितना आवश्यक है, उसे ही ग्रहण करते हैं, अनावश्यक कार्यों से प्रयोजन नहीं रखते हैं। न अनावश्यक बातों को सुनना पसंद करते हैं। समय ही उनके लिये धन है। या यूँ कहो (जद्वद्वद् द्वह्य द्वशठ्ठद्ग४) वे समय धन को धीरे-धीरे खर्च करते हुए एक व्यापारी की भाँति कार्य करते हैं। जैसे व्यापारी सोच समझकर धन को खर्च करता है। ऐसे ही विवेकी प्राणी समय के मूल्य को पहचानते हुए अपने आवश्यकों में समय को खुले दिल से खर्च करता है। आचार्य परमेष्ठी का दर्जा प्राप्त होने से श्रावकजन उन्हें बहुमूल्य वस्तुएँ प्रदान करते हैं। एक बार एक श्रावक ने अंग्रेजी भाषा में साहित्य भेट किया और कहा यह बहुत कीमती है। बाद में पूछा आपने पढ़ा क्या? वह तो बहुमूल्य था तो गुरुदेव ने कहा कि मेरा समय भी बहुमूल्य है। ऐसे ही उसे खर्च नहीं करते। एक बार एक श्रावक ने पेन दिया जो लिखते ही प्रकाश प्रदान करने लगता था। जब गुरुदेव ने कहा-आरम्भ और परिग्रह को उत्पन्न करने वाले साधन की आवश्यकता नहीं है। यही विवेक उनकी समायोजना में है। बुद्धि के ज्ञान के चातुर्य के साथ अपनी चर्या को सम्पन्न कर शरीर और आत्मा के भेद को जानकर भेदविज्ञान की ओर दृष्टि रखना। यही ५० वर्षों से आमदनी प्राप्त कर धीरे-धीरे खर्च करते हुए दिखाई देते हुए नीर-क्षीर विवेक का संदेश प्रसारित करते हैं।