संस्कृति का संरक्षण सुसंस्कारों के द्वारा ही सम्भव हो सकता है। संस्कारों को सुरक्षित रखने के लिए पूर्वाचार्यों ने त्याग की श्रेणियों का निर्धारण किया। इसी प्रकार आचार्य गुरुदेव ने जैन संस्कृति के संरक्षण के लिए तीर्थ स्थानों पर प्रवास प्रारम्भ किया, फिर चातुर्मास भी किया। शीतकाल भी व्यतीत किया। ग्रीष्मकाल भी व्यतीत किया। साधना की उच्चता निरीहवृत्ति, जनसम्पर्क रहितता आदि के दर्शन करने श्रावकों का क्षेत्रों पर सहज ही आना प्रारम्भ हो गया। और क्षेत्रों की दशा देखकर दान देने का भाव उत्पन्न होने लगा। दान की राशि, सामग्री आने पर क्षेत्रों पर योजना बनने लगी। जीणदार के कार्य प्रारम्भ होने लगे। पुराने तीर्थ नये तीर्थ के रूप में प्रकट होने लगे। यह संस्कार युक्त व्यक्तित्व के प्रभाव से बिना बोले बिना संकेत के जैन संस्कृति ध्वंस होने से सम्भलने लगी। नये तीर्थों का उद्भव भी प्रारम्भ होने लगा। संस्कृति संरक्षण के लिए बाल ब्रह्मचारी बहनों का एक संगठन तैयार हुआ जिसे गुरुदेव ने प्रतिभा मण्डल नाम प्रदान किया। प्रतिभा मण्डल द्वारा लड़कियों का स्कूल, प्रतिभास्थली, सुसंस्कारवान लड़कियों का समाज में एक दर्जा प्राप्त हो, जिससे संस्कारवान बहू आने वाली पीढ़ियों को प्राप्त हो। जब लड़की संस्कारवान होगी, तब वह दूसरे घर जाकर संस्कारवान बहुत बनेगी। दया के क्षेत्र में गायों का संरक्षण यह अहिंसा की संस्कृति है। चिकित्सा के क्षेत्र में भाग्योदय यह सेवा की संस्कृति है। इस प्रकार ५० वर्षों में गुरुदेव ने आत्मा का संरक्षण करते हुए संस्कृति के संरक्षण की ओर लोगों को आकर्षित किया।