१-०४-२०१६
वीरोदय (बाँसवाड़ा-राजः)
कल्पद्रुम महामण्डल विधान
रूप और रूपातीत सौन्दर्य का संयुक्त गान करने वाले साहित्य सृजक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में भक्तिगान पूर्वक नमन करता हूँ...
हे गुरुवर! आपसे एवं आपके नवोदित शिष्य की साधना से प्रभावित होकर जैन जगत् के प्रसिद्ध प्रवक्ता बाबूलाल जी जमादार बड़ौत ने अपने बेटे को दिगम्बर मुनि की चर्या देखने के लिए आप द्वय के पास भेजा था। तब उनके बेटे अशोक कुमार जमादार ने आकर जो कुछ देखा और अनुभव किया वह सब मुझे उन्होंने १०-१२-२०१४को लिखकर दिया, मेरा मन आपको बताने का हो रहा है सो मैं आपको लिख रहा हूँ
गुरु ने की शिष्य की देखभाल
"सन् १९६८ में, मैंने अपने पूज्य पिताश्री को निवेदन किया कि मुझे दिगम्बर साधु की चर्या को जानने एवं देखने की इच्छा हो रही है। तब पिताश्री बोले-बेटे यदि सच्चे दिगम्बर संत परम्परा की चर्या-क्रिया देखना है तो तुम अजमेर चले जाओ वहाँ मुनि ज्ञानसागर जी महाराज का चातुर्मास हो रहा है उनको देखो, उनकी सेवा करो। पिताश्री ने एक पत्र सर सेठ भागचन्द जी सोनी के नाम लिख दिया। मैं बड़ौत से सीधे अजमेर पहुँच गया और जाकर सर सेठ सोनी जी से मिला, उन्होंने मेरे पिता बाबूलाल जी जमादार का पत्र पढ़ा और बड़े ही खुश हुए। वो मुझे परमपूज्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के पास ले गए और कहा-यह जमादार जी का बड़ा बेटा है आपके पास रहना चाहता है। पूज्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज बोले- 'अच्छा है मुनि विद्यासागर जी की उम्र का है दोनों ही साथ रह लेंगे।"
गुरु आज्ञा मिलते ही मैंने सफेद धोती-दुपट्टा पहन लिए, सिर के बाल कटवा लिए एवं मुनि श्री विद्यासागर जी के साथ ही रहने लगा। मुझे गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज ने निर्देशित किया कि विद्यासागर जी के अध्ययन व साधना में किसी प्रकार की विघ्न-बाधा न आए ध्यान रखना और उन्हें आहार में मस्तिष्क की पौष्टिकता के लिए कुछ चीजें देने के लिए कहा। मैं उन वस्तुओं को देने की कोशिश करता तो मुनि श्री विद्यासागर जी मनाकर देते थे। तब गुरुदेव का नाम लेकर मैं चलाया करता था।
तपस्या की उत्कट भावना
एक दिन मुनि श्री विद्यासागर जी मुझसे बोले- 'अशोक जी आपको तो हिन्दी अच्छी आती है मुझे नहीं आती आप भी दीक्षा ले लो और अपन दोनों साथ में रहेंगे। आप अच्छा प्रवचन करना और मैं अध्ययन और तपस्या करूँगा।' उन्हें हमने अपने प्रवास काल में कभी भी हँसी-मजाक करते हुए नहीं देखा और व्यर्थ की कोई चर्चा करते हुए नहीं देखा। दिन-भर अध्ययन करते थे, रात्रि में सामायिक के बाद गुरुदेव की वैयावृत्य किया करते थे और गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज को लिटाकर वो स्वयं ध्यान-चिन्तन-मनन में बैठ जाते थे। मैं तो थक जाता था। ११:00 बजे तक सो जाता था, उनकी सेवा करने के लिए कहता तो वो मना करते हुए कहते– ‘मुझे जरुरत नहीं। इस तरह हमने मुनि विद्यासागर जी को कभी सोते हुए नहीं देखा।
जबरदस्त याददास्त
मुनि विद्यासागर जी महाराज को जो भी शिक्षक पढ़ाने आते थे या गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज पढ़ाते थे तो पहले उन्हें वो पिछला पूरा पाठ सुनाते थे। पाठ को सुनाते समय उन्हें कभी भी अटकते हुए नहीं देखा।
आज्ञाकारी शिष्य ने गुरु से सीखा योगासन
सुबह शौचोपक्रिया के उपरान्त एकान्त में योगासन आदि क्रियाएँ करते थे और विचित्र योगासन जो किसी से नहीं बनते वो भी कर लेते थे। यह सब उन्होंने गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज से सीखा था। उनकी गुरु भक्ति की कसौटी यह थी कि गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज का हर आदेश, उपदेश, संकेत को हर्षित होकर स्वीकार करते थे और कभी भी मुख से न नहीं कहते थे।
गुरु सेवा की सबसे बड़ी साधना
जब कभी गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज का स्वास्थ्य थोड़ा भी कमजोर होता तब मुनिवर विद्यासागर जी हर पल सेवा में दत्तचित्त रहते थे। मैंने कहा कि आप मुझे क्यों नहीं आदेश देते। यह कार्य तो मैं कर दिया करूँगा। तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज बोले- ‘गुरु सेवा स्वयं की जाती है दूसरे से नहीं कराई जाती है। कई बार तो बच्चों के समान गुरु के सिर के नीचे अपना हाथ का तकिया लगा देते थे। यह साधना मुझे सबसे बड़ी साधना लगी बिना हाथ हिलाए घण्टों बैठे रहना।
गुरु की भविष्यवाणी पूरी हुई
मुझे गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने जैन सिद्धान्त प्रवेशिका पढ़ाना शुरु किया और कभी-कभी मेरी रुचि के अनुसार कभी-कभी सामुद्रिक शास्त्र (हस्तरेखा) की भी सूक्ष्म बातें बता दिया करते थे। मैं उनकी बातों को सुनकर एक दिन मुनि श्री विद्यासागर जी की शुद्धि करा रहा था तब उनका हाथ देखने में आया गुरुदेव के बताए अनुसार मुझे सब कुछ दिख गया। मैंने गुरुदेव को जाकर बताया तो गुरुदेव बोले- ‘श्रमण संस्कृति का नाम रोशन करेगा। आचार्य कुन्दकुन्द और समन्तभद्र, अकलंक आदि आचार्यों की प्रतिछवि के रूप में निखरेगा।'
गुरुदेव ज्ञानसागर जी का चमत्कार
एक दिन मैं मुनि श्री विद्यासागर जी के साथ शौच क्रिया के उपरान्त लौट रहा था। तब रास्ते में कुछ असामाजिक व्यक्तियों ने व्यंग कसा कि इन नंगे साधुओं के कारण ही वर्षा नहीं हो पा रही है। मैंने यह बात। गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज से जाकर कही और कहा-मुझे क्रोध आ रहा है पीड़ा भी हो रही है कि इन मूर्खा को यह पता नहीं कि जैन साधु प्राणीमात्र के लिए जीते हैं छोटे से छोटे जीवों के जीवन की भी चिन्ता करते हैं। वो प्रकृति को किसी भी रूप में नहीं छेड़ते। गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज बोले- ‘क्रोध मत करो, क्रोध करना व्यर्थ है क्योंकि अज्ञानियों को नहीं पता दिगम्बर साधुओं की साधना। वो अज्ञानी है, इसलिए क्षमा के पात्र हैं। फिर उन्होंने बोला-‘ये छोटा-सा कार्य तो तुम ही कर सकते हो, जाओ बैठ जाओ खुले में और एक घण्टे तक णमोकार मंत्र का जाप ध्यान करो।' गुरु आदेश पर मैं मानस्तम्भ के पास ध्यानस्थ हो गया और १० मिनट बाद ही वर्षा शुरु हो गई, ऐसी धुंआधार वर्षा शुरु हुई कि अजमेर में पानी-पानी हो गया। यह थी गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज की कृपा।
दीक्षा के बाद प्रथम केशलोंच पर गुरु का मार्मिक प्रवचन
गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज के मुख में दाँत एक भी नहीं बचा था। इस कारण उनकी आवाज साफ नहीं निकलती थी, किन्तु उनके प्रवचन इतने मार्मिक और सरल होते थे कि जनता बड़ी एकाग्रता व आनन्द के साथ सुनती थी। एक दिन मुनि श्री विद्यासागर जी का दीक्षा के बाद प्रथम केशलोंच स्टेज पर हो रहा था और गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज प्रवचन कर रहे थे। तब उन्होंने एकान्तवादियों के द्वारा चारित्र को न मानने वाले मत की ओर निशाना साधते हुए कहा- ‘ज्ञानामृत पीने के लिए चारित्ररूपी प्याला होना चाहिए। जिस प्रकार चाय पीने के लिए बर्तन या कप का होना अति आवश्यक है, वरना वह चाय बर्तन में ही रह जायेगी। इसी प्रकार आत्मा का ज्ञानामृत या आत्मानुभूति या शुद्धात्मानुभूति की योग्यता होने के बावजूद भी चारित्र के बिना उसका रसास्वादन सम्भव नहीं है। इसी तरह मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज की टूटी-फूटी हिन्दी में कन्नड़ का टोन होने के कारण उनका प्रवचन सभी को मीठा लगता था। वे भी छोटे-छोटे दृष्टान्त से आत्मा की बात को समझाया करते थे।
मुनि श्री विद्यासागर जी के सान्निध्य का प्रभाव
उत्कृष्ट वैरागी तपस्वी मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के समागम से मेरे भाव वैराग्य से ओत-प्रोत हो गए। तब मैंने मुनि श्री विद्यासागर जी के साथ मुनि बनकर साधना करने का विचार किया। मुझे वह दिन भी याद आ रहा है सोनी जी की नसियाँ में प्रवचन के लिए पूरा प्रांगण जनता से भरा हुआ था। मंच पर पूज्य ज्ञानसागर जी महाराज, मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज एवं क्षुल्लक सन्मतिसागर जी महाराज, क्षुल्लक सुखसागर जी महाराज आदि विराजमान थे और सभा में सर सेठ भागचन्द जी सोनी आदि गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। तब मैं हाथों में श्रीफल लेकर खड़ा हुआ और निवेदन किया- हे गुरुदेव! मुझे मोक्षमार्ग पर चलने हेतु महाव्रत प्रदान करें, मुनि दीक्षा देवें और मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर मेरा आत्मकल्याण करें। इतना मेरा बोलना हुआ और पूरी सभा में हंगामा हो गया। तरह-तरह की बातें होने लगीं विरोध को देखते हुए श्री भागचन्द जी सोनी ने बीच-बचाव किया और उन्होंने गुरुदेव से निवेदन किया। हे गुरुदेव! आपने अभी एक जवान युवा को दीक्षा दी है। अतः उन्हें आप १-२ वर्ष देख लें, उसके बाद ही किसी अन्य जवान को दीक्षा देवें। जब तक अशोककुमार जी संघ में रहकर साधना कर लेंगे। समाज को डर है कि जवानी में कहीं कोई अनहोनी न हो जाये। तब गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज बोले- 'अभी भव्य मुमुक्षु ने अपनी भावना रखी है। अभी हमने कोई निर्णय नहीं लिया है। आप लोग व्यर्थ ही चारित्रमोह कर्म को बन्ध कर रहे हैं।
समय चक्र के चलते मेरा ऐसा अन्तराय कर्म का उदय आया कि परिजन आकर के मुझे घर ले गए और संसार चक्र में फँसा दिया। इस तरह आपके शिष्य की अनोखी चर्या देखकर भव्यात्मा के भाव भींग उठे। आज तक आपके शिष्य की आध्यात्मिक साधना से प्रभावित होकर सहस्राधिक भव्यात्माओं के भाव वैराग्य से भींगे और अपनी योग्यतानुसार साधना मार्ग में आरूढ़ हुए हैं। ऐसे पारलौकिक चमत्कारी आध्यात्मिक शिष्य को त्रिकाल कोटिकोटि वंदन करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य