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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - ६२ प्रथम परीक्षा में परीक्षक हुए हक्के-बक्के, कसौटी पर खरे उतरे ब्रह्मचारी विद्याधर, तृतीय परीक्षक ने दिए विद्याधर जी को सौ प्रतिशत अंक एवं चतुर्थं परीक्षक को विश्वास दिलाया विद्याधर जी ने

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    ०३-०३-२०१६

    घाटोल (बासवाड़ा राजः)

    गर्भकल्याणक महोत्सव

    आत्मपरीक्षक, आत्मोत्तरदाता, आत्मसमालोचक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की आत्मदृष्टि को कोटिशः प्रणाम करता हूँ...

    हे गुरुवर! आपश्री ने दादिया ग्राम में ही ब्रह्मचारी विद्याधर जी की साधना की चार बार परीक्षा ली थी और ब्रह्मचारी जी उन परीक्षाओं में शत-प्रतिशत पास ही नहीं हुए बल्कि त्यागी विद्यार्थी के रूप में सबके आदर्श बन गए थे। इस बारे में दादिया के पारस झाँझरी सुपुत्र हरकचंद जी झाँझरी ने बताया

     

    प्रथम परीक्षा में परीक्षक हुए हक्के-बक्के

    “दादिया प्रवास में ब्रह्मचारी विद्याधर जी बड़ी ही साधना करते रहते थे। वे भोजन में नमक-मीठा नहीं लेते थे और मुनि दीक्षा लेने की तीव्र भावना रहती थी। इसलिए गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज उनकी परीक्षा लेते रहते थे। एक बार रात को ज्ञानसागर जी महाराज ने मेरे पिताजी हरकचंद जी झाँझरी को इशारे से पूछा कि ब्रह्मचारी विद्याधर कहाँ पर है ? तब पिताजी ने मंदिर, धर्मशाला सब जगह देख लिया, नहीं मिले। तो बाहर जाकर आस-पास भी देख लिया, नहीं मिले। तो हम युवाओं को बुलाकर घबड़ाते हुए बताया ब्र० विद्याधर जी नहीं दिख रहे है ढूंडो कहाँ है ? हम युवा चारों तरफ दौड़ पड़े ढूंढ़ाढूंढ़ मच गई। कहीं नहीं मिले, फिर पिताजी को याद आया कि मंदिर की छत पर भी देख लेते हैं, ऊपर जाके देखा तो वो ध्यान में एक पैर से खड़े हुए थे। आधी रात का समय हो गया था। हम सभी लोग थक गए थे, सो सोने चले गए। वो कब नीचे आए पता नहीं, ऐसी कठोर साधना मुनि बनने के लिए ब्रह्मचारी विद्याधर जी करते थे जिसे देख-सुनकर सभी हक्के-बक्के रह गए थे। इसी प्रसंग में मदनगंज-किशनगढ़ के दीपचंद जी चौधरी ने भी एक वाकया सुनाया। जिसे आप जानते हैं। फिर भी आपकी स्मृति को ताजा करने के लिए मैं लिख रहा हूँ

     

    कसौटी पर खरे उतरे ब्रह्मचारी विद्याधर 

    "जब गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज मदनगंज-किशनगढ़ से दादिया गाँव गए तब एक दिन मदनगंज-किशनगढ़ से, अजमेर से, नसीराबाद आदि अनेकों स्थानों से काफी लोग एकत्रित थे। उस वक्त ज्ञानसागर जी महाराज ने सभी के समक्ष ब्रह्मचारी विद्याधर जी को मुनि दीक्षा देने की बात रखी। तो वहाँ के हरकचंद जी झाँझरी ने निवेदन किया कि आप मुनि दीक्षा देने के बारे में विचार कर रहे हैं या निर्णय कर रहे हैं ? तब ज्ञानसागर जी महाराज बोले- 'विचार निर्णय में परिवर्तित हो गया है। मैंने विद्याधर की साधना, दृढ़ता,। साहस, त्याग, श्रद्धा, ज्ञान की ललक, समर्पण, लगन, विनय, भक्ति, आत्मकल्याण की भावना और आगम निष्ठ आचरण का दृष्टिकोण देख लिया है एवं परीक्षा भी कर ली है। हर तरह से मेरी कसौटी पर विद्याधर। खरा उतरा हैं इसलिए हमने सीधे मुनि दीक्षा देने का निर्णय लिया है।' तब हरकचंद जी बोले-गुरुदेव अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं भी ब्रह्मचारी जी की परीक्षा कर लूँ ? तो गुरुवर ज्ञानसागर जी बोले-‘खूब परीक्षा कर लो, सोलह बन्नी का सोना है तो वह सोलह बन्नी का ही रहेगा। खरा तो खरा ही रहेगा। वह कभी अखरेगा नहीं।’’ इसी प्रकार आपकी आज्ञा पाकर अजमेर के पण्डित विद्याकुमार जी सेठी ने भी ब्रह्मचारी विद्याधर जी की परीक्षा की थी और परीक्षा के परिणाम स्वरूप आप मुनि दीक्षा देने के लिए निर्णीत हुए थे। मुझे पण्डित विद्याकुमार सेठी ने अक्टूबर १९९४ अजमेर में इस प्रकार संस्मरण सुनाया-

     

    तृतीय परीक्षक ने दिए विद्याधर जी को सौ प्रतिशत अंक

    "जब मुनि ज्ञानसागर जी महाराज दादिया ग्राम में विराजमान थे। तब मैं दर्शन करने गया। तो महाराज मुझसे बोले- ‘सेठी जी ब्रह्मचारी विद्याधर को दिगम्बर रूप में देखा कि नहीं?' मैंने कहा- नहीं देखा, क्यों देखना ? तो महाराज बोले- ‘यदि उनके लिंग में कोई गड़बड़ी हो तो हम उनको ऐलक दीक्षा ही देवेंगे और यदि सही है तो फिर सीधे मुनि दीक्षा देवेंगे।' तब हमने कहा आपकी आज्ञा है तो मैं परीक्षा कर लेता हूँ। फिर मैं ब्रह्मचारी जी के पास गया हमने कहा-विद्याधर जी आप क्षुल्लक, ऐलक बनना चाहते हैं या मुनि, तो ब्रह्मचारी जी बोले-ये तो गुरु के ऊपर निर्भर है वो मुझे किस योग्य समझते हैं। मैं तो मुनि बनना चाहता हूँ। गुरुजी को निवेदन भी किया है।' तब हमने कहा-ब्रह्मचारी जी आप तो साधना शुरु कर दो दिगम्बर अवस्था में सामायिक खड़े होकर किया करो। तब ब्रह्मचारी विद्याधर जी बोले- 'मैं जब किशनगढ़ में आया था। तब गुरु जी ने कुछ दिन बाद मुझको ऐसा ही कहा था तब से मैं तो खड़े होकर वस्त्र त्याग कर सामायिक करता हूँ।' मैंने कहा-ठीक-ठीक बहुत अच्छा। फिर मैंने सामायिक के वक्त जाकर देखा तो उनकी वह दिगम्बर मुद्रा देखकर अचम्भित रह गया। तीर्थंकर के समान उनका वह जिनरूप वीतरागता को प्रदर्शित कर रहा था। बाद में ज्ञानसागर जी महाराज को जाकर बता दिया कि आपका निर्णय सौ प्रतिशत सही है, तो ज्ञानसागर जी महाराज बोले- ‘तब तो इस मनोज्ञ ब्रह्मचारी जी को सीधे मुनि दीक्षा ही दूँगा हर तरह से योग्य है।" इसी प्रकार कुछ दिन बाद अजमेर के आपके अनन्य भक्त छगनलाल जी पाटनी ने मुझे सितम्बर १९९४ अजमेर में बताया

     

    चतुर्थं परीक्षक को विश्वास दिलाया विद्याधर जी ने

    ‘‘जब गुरु महाराज ज्ञानसागर जी दादिया में विराजमान थे। मैं कुछ लोगों के साथ अजमेर से दादिया ग्राम दर्शन करने गया। तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की चर्चा से समझ गया कि वो ब्रह्मचारी जी को सीधे मुनि दीक्षा देंगे। तब हमने गुरुजी को निवेदन किया कि कहीं विरोध न हो जाये। तब गुरुदेव बोले- 'मैं तो सर्व आगम दृष्टियों को देखकर के और त्यागी जी की सर्व परीक्षा करने के बाद इस निर्णय पर पहुँचा हूँ और मेरी उम्र भी ज्यादा होती जा रही है। तो मैं उसे मुनि के संस्कार कैसे दे पाऊँगा ? कुन्दकुन्द स्वामी की अनुभूति का अनुभव कैसे चखा पाऊँगा ? मुझे विरोध की कोई परवाह नहीं है। आगम विरुद्ध कार्य हो तो चिन्ता करूँ।"

     

    उसके बाद मैं ब्रह्मचारी विद्याधर जी के पास बैठ गया और उनसे कहा- आप मुनि चारित्र को अंगीकार करने जा रहे हो तो ये मार्ग बहुत सोच समझकर लेना, क्योंकि यह मार्ग तलवार की धार पर चलने के समान है और गुरुजी वृद्ध हैं अतः बाद में आपको अकेला रहना पड़ेगा। तब ब्रह्मचारी विद्याधर जी बोले- ‘पाटनी जी इतना तो विश्वास है कि गुरुदेव मुझे यदि मुनि दीक्षा देते हैं तो चारित्र तो ऐसा ही रहेगा (ज्ञानसागर जी की ओर इशारा करते हुए)। ज्ञान की बात मैं नहीं कह सकता किन्तु गुरु ने जो मुझसे अपेक्षाएँ रखीं है, वैसा ही चारित्र का पालन करके दिखा दूँगा। 'यह बात सुनते ही मेरी आँखों से आँसू आ गए। कहाँ तो दक्षिण भारत का बालक और कहाँ उत्तर भारत के गुरु का विचित्र संयोग। जिस प्रकार से ज्ञानसागर जी महाराज चारित्र पालने में दृढता रखते हैं। ऐसी ही दृढता ब्रह्मचारी विद्याधर जी रखते हैं। समय पर आवश्यक पालन करना उनका नित्य प्रति का कार्य था। उनकी दैनिक चर्या को देखकर ऐसा लगता था जैसे कई कई वर्षों से ये साधना कर रहें हों। बड़े ही सहज, सरल, स्वाभाविक चर्या बन गई थी उनकी। ब्रह्मचारी जी की साधना एवं वचनों की दृढ़ता को देख मुझे विश्वास हो गया कि ये गुरु महाराज का डंका बजा देगा।’’ इस तरह ब्रह्मचारी विद्याधर जी जब अपने गुरु की परीक्षा में खरे उतरे। तो फिर दुनिया का ऐसा कौनसा परीक्षक है ? जिसकी आँखों में वो खरे न उतरें। बचपन से ही जो गुरुजनों की आँखों का तारा हो और हमेशा अब्बल श्रेणी में रहा हो। ऐसे महापुरुष को कसने वाली हर कसौटी कमतर ठहरती हैं। ऐसे सर्वोत्तीर्ण साधक को प्रणाम करते हुए धन्यता का अनुभव हो रहा है....

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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