०९०१-२०१६
अतिशय तीर्थक्षेत्र
चंबलेश्वर पार्श्वनाथ (राजः)
ज्ञानं ज्ञाता ज्ञेय के साधक ज्ञानमूर्ति गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के ज्ञानाचरण को त्रिकालं वन्दन करता हूँ...
हे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी! आज आपको आपके ज्ञानपिपासु अन्तेवासिन् का ज्ञानार्जन पुरुषार्थ एवं उस ज्ञान को अनुभव की चासनी में पागने की कला के बारे में बता रहा हूँ जैसा भाई महावीर जी ने बताया-
ज्ञानार्जन के साथ ध्यानार्जन
जब विद्याधर ९ वर्ष का था तब अकेले कलबसदि (छोटा जैन मंदिर) चला जाता था। वहाँ जाकर प्रतिदिन शाम को ध्यान किया करता था। जब १३ वर्ष का हुआ तो दोड्डबसदि (बड़ा जैन पंचायती मंदिर) जाता और वहाँ पर स्वाध्याय सुनने बैठ जाता था। कभी-कभी शिखरबसदि (जमींदारों का जैन मंदिर) भी जाता था।
१४-१५ वर्ष की उम्र में विद्याधर दोड्डबसदि में सभी को स्वाध्याय कराने लगा था। भरतेश वैभव, रत्नाकर शतक सभी को कन्नड़ में सुनाता था और उसके बाद १०-११ बजे रात तक मूलाचार पढ़ता रहता था। कभी-कभी तो कलबसदि के पीछे २ बजे रात तक ध्यान सामायिक करता रहता था। कभी खड़े होकर तो कभी बैठकर। यह सब जानकारी उसके साथ सदा रहने वाला मित्र मारुति हम लोगों को बताता रहता था। मित्र मारुति का कहना था कि मुझे तो नींद आने लगती, उबासी आने लगती थी किन्तु विद्याधर को स्वाध्याय में और ध्यान में कभी भी उबासी नहीं आती। एक बार मारुति उसके साथ नहीं था तब भी विद्याधर अकेले टीले वाले मंदिर के (कलबसदि) पीछे २ बजे रात तक ध्यान करता रहा। फिर रात में टेंट वाली टॉकीज की फिल्म छूटी तो लोग निकले तब उनके पीछे-पीछे घर तक आया क्योंकि रात में कुत्ते भौंकते थे तो डर लगता था। घर का ताला लगाकर जाता था। चुपचाप आकर लेट जाता था। जब इस प्रकार की साधना करने लगा तब घर पर ज्यादा बातचीत करना बंद कर दी थी। अधिक समय तक अकेले ही रहना पसंद करता था।” इस तरह बचपन का आत्मप्रेरक साधक आज आत्म महासाधक बन गया। ऐसे आत्मशिल्पी साधक के चरणों में नमन करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य