२०-११-२०१५
भीलवाड़ा (राजः)
जैन जगत् के आलोक, तत्त्व प्रकाशक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को गुणानुरागी का नमोस्तु- -नमोस्तु-नमोस्तु…
हे शान्तिपथ के राही गुरुवर! माता-पिता यदि सुसंस्कारित हैं, तो उनकी संतानें भी उनसे अच्छे-अच्छे संस्कार जन्म से ही प्राप्त करती चली जाती हैं। इस प्रसंग में विद्याधर का पुण्य कहूँ या माता-पिता का, जिन्हें ऐसा भाग्यवान् पुत्र प्राप्त हुआ। विद्याधर की ईमानदारी के बारे में बड़े भाई महावीर जी ने बताया-
बचपन में सीखा ईमानदारी का पाठ
"विद्याधर को जब किसी कार्य के लिए पैसे दिए जाते तो वो कार्य पूरा करने के बाद हिसाब देते थे और बचे हुए पैसे अक्का (माँ) को दे देते थे। जब वह ८-१० वर्ष का हुआ तो अन्ना या अक्का उससे कभी-कभी कुछ छोटा समान बाजार से लाने के लिए भेजते थे, किन्तु वह कभी भी बचे हुए पैसे से अपने लिए कुछ नहीं खरीदता था। शुरु से ही अक्का और अन्ना ने हम लोगों को ईमानदारी सिखाई थी।” इस तरह विद्याधर को बचपन से ही किसी वस्तु से मूर्छा नहीं रही। माता-पिता हर आवश्यकता को खुशी-खुशी पूरी कर दिया करते तो विद्याधर और सभी भाई-बहिनों को कभी भी झूठ का सहारा नहीं लेना पड़ा। मैं भी सत्य स्वभावी आत्मप्राण में रम जाऊँ...
आपका
शिष्यानुशिष्य