१७-११-२०१५
भीलवाड़ा (राजः)
ज्ञानेन्दु अमृत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पुनीत चरण युगलों की वंदना करके उस विराट महापुरुष के व्यक्तित्व में जड़ित चातुर्य गुण के दो संस्मरण आपको बता रहा हूँ-जो मैंने बड़े भाई महावीर जी से सुने हैं-
खेलों के खिलाड़ी
'विद्याधर जब ८-९ वर्ष का था तब सूरफलंग नामक खेल खेलता था जिसमें बच्चे पेड़ों पर चढ़ जाते थे और एक बच्चा जमीन पर गोला बनाकर बीच में लकड़ी गड़ाकर रख देता था और चारों तरफ से बच्चे पेड़ पर से उतरते उस लकड़ी को छूते और भागकर पुनः चढ़ते थे, नीचे वाला बच्चा उनको पकड़ता था। जिसको भी पकड़ लिया वह हार जाता था और फिर उसे नीचे रहना पड़ता था। यह खेल सदलगा में गुफा के चारों ओर जहाँ वट वृक्ष लगे हैं, वहाँ खेलते थे। उनकी लटकती हुई जड़ों को पकड़कर पेड़ पर चढ़ते-उतरते थे।
कभी मित्रों के साथ गिल्ली-डंडा खेलता था। जब और बड़ा हुआ तो कैरम एवं शतरंज खेलने लगा था। कैरम एवं चैस में इतना अभ्यस्त हो गया था कि बड़ों को भी हरा देता था, किन्तु जब कभी चैस में हार जाता तो अकेले बैठकर उन चालों पर विचार करता था। फिर दोबारा जीतकर ही मानता था। मैं कभी भी चैस में विद्याधर से नहीं जीता। हाई स्कूल में पढ़ते वक्त स्कूल की बालीबॉल टीम में, खो-खो टीम में एवं कबड्डी टीम में खेला करता था।” इस तरह वह खेलों में सावधानी से खेला करता था। आज वह चातुर्य गुण युवा पीढी को जीवन की कला सिखा रहा है। इसी प्रकार चातुर्यगुण का दूसरा संस्मरण-
घुड़सवार विद्याधर
‘‘विद्याधर जब १३-१४ वर्ष का था तब खेत पर मेरे साथ जाता था। तो वहाँ पर खेत पर काम करने वाला एक व्यक्ति घोड़ा लेकर आता था। उसका घोड़ा देखकर विद्याधर उस पर बैठकर धीरे-धीरे दौड़ाना सीख गया था। उसको किसी ने ट्रेनिंग नहीं दी। स्वतः ही सीख गया था।’’ इस तरह विद्याधर ने साहस एवं चतुराई से अश्व को अपने नियंत्रण में लेकर घुड़दौड़ की कला को भी हस्तगत कर लिया था। जीवन के सर्वकला विज्ञ को प्रणाम करता हुआ....
आपका
शिष्यानुशिष्य
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