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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 208 - जैन सिद्धान्त में पारंगत

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-२०८

    २२-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

     

    सिद्धान्त को आचरण बनाने वाले परमपूज्य दादा गुरु श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पवित्र चरणों में नतशिर अवनत... हे गुरुवर! आपने ५-७ वर्ष में ही अपने लाड़ले शिष्य को जैन सिद्धान्त में इतना पारंगत बना दिया कि वे हर बात में सिद्धान्त को खोज लेते हैं। इस सम्बन्ध में ब्यावर के सोहनलाल जी जैन का संस्मरण सुशील जैन (अग्रवाल जैन) के द्वारा प्राप्त हुआ और दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने २०१८ ज्ञानोदय में दो संस्मरण सुनाए वे आपको बता रहा हूँ| -

     

    जिनवाणी के शब्द मारक नहीं तारक होते हैं।

    ‘‘ब्यावर चातुर्मास प्रारम्भ होने के कुछ दिन बाद ब्यावर की श्वेताम्बर जैन समाज का शिष्टमंडल आचार्यश्री जी के दर्शनार्थ आया तो उन्होंने आचार्यश्री से प्रश्न किया आप माईक से प्रवचन करते है? जबकि शब्द तो मारक होते हैं जीवों की हिंसा होती है। तब आचार्यश्री जी ने जवाब दिया-समवसरण की रचना देवों द्वारा की जाती है अर्थात् उसमें तीर्थंकर भगवान की किसी प्रकार की अनुमोदना नहीं होती। इसी प्रकार भव्य जीवों के कल्याणार्थ समाज के लोग व्यवस्थाएँ बनाते हैं उसमें -महाव्रतियों की अनुमोदना नहीं होती, और जिनवाणी के शब्द मारक नहीं तारक होते हैं। अधिक से अधिक लोग सुनकर अपना कल्याण करते हैं।' यह सुनकर वे लोग चले गए और प्रतिदिन प्रवचन में आने लगे |

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    कथा में सिद्धान्त की पकड़

    ब्यावर चातुर्मास में एक दिन आचार्यश्री एवं क्षुल्लक स्वरूपानंद सागर जी प्रात:काल शौच के लिए जंगल जा रहे थे। रास्ते में स्वरूपानंद जी ने आचार्यश्री जी से कहा-सहदेवी रानी का जीव मरकर शेरनी बन गया और उसने तीव्र रौद्र ध्यान में आकर पूर्वभव के पुत्र सुकौशल मुनिराज पर घोर उपसर्ग किया, उस उपसर्ग को सहन करके सुकौशल मुनिराज केवलज्ञानी हो गए। तब पूर्वभव के पति श्री कीर्तिधर मुनिराज ने उस शेरनी को सम्बोधित किया जिससे वह शान्त परिणामों से मरकर स्वर्ग में देवी बन गयी। इस प्रसंग को सुनकर आचार्यश्री बोले-‘वह शेरनी सम्यक्त्व ग्रहण नहीं कर पायी। इसलिए स्वर्ग में देवी पर्याय को प्राप्त हुई।' इस प्रकार आचार्यश्री जी प्रथमानुयोग की चर्चा में भी सिद्धान्त की बात पकड़ लेते थे।

     

    वाह!!! क्या जवाब है।

    ब्यावर चातुर्मास के दौरान ब्रह्मचारिणी दाखाबाई जी, ब्रह्मचारिणी मणिबाई जी, ब्रह्मचारिणी कंचन माँ जी तीनों ने मिलकर चौका लगाया और प्रतिदिन आहार के लिए पड़गाहन करतीं। एक दिन उनके चौके में पण्डित श्री हीरालाल जी शास्त्री परिवार ने पड़गाहन किया। उस दिन किसी ने कच्चे सेवफल का टुकड़ा अंजुलि में दे दिया आचार्य महाराज ने उस सेवफल के टुकड़े को देखकर अंतराय कर दिया। पण्डितजी काफी दुखी हुए फिर शाम को चर्चा के दौरान पण्डित जी बोले-महाराज! जिस प्रकार से अंजुलि में बीज, कंकड़, तृण आ जाने पर उसे अलग करने का विधान है इसी प्रकार अगर सचित्त वस्तु आ जाये तो उसे अंजुलि से अलग कर देने में क्या बाधा है? तब आचार्यश्री जी ने बहुत अच्छा जवाब दिया-‘श्रावक की असावधानी के कारण अन्तराय किया जाता है और उसको मालूम भी तो होना चाहिए ना! कि मुनि महाराज सचित्त वस्तु नहीं लेते हैं और फिर मैं सचित्त वस्तु को नीचे गिराऊँगा तो अहिंसा व्रत नहीं पलेगा इसलिए अंतराय करना श्रेष्ठ है। आचार्यश्री का जवाब सुनकर शास्त्रीजी वाह! वाह !! कर उठे और हाथ जोड़कर नमोऽस्तु करने लगे।"

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    इस तरह आपके लाड़ले शिष्य प्रिय आचार्य हम सबके गुरुवर को प्रारम्भ से ही जो भी देखता/समझता, तो पाता वे एक अलौकिक ज्ञानरूपी व्यक्तित्व के धनी हैं। जन्म-जन्मान्तरों का महापुरुषत्व उनमें झलकता है। ऐसे दिव्य व्यक्तित्व के धनी गुरु-शिष्य के चरणों में त्रिकाल वंदना करता हुआ...

    आपका शिष्यानुशिष्य


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