पत्र क्रमांक-२०७
२१-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
स्वभावगत संवादी सुखी शान्तिपूर्ण जीवन के शाश्ता परमपूज्य दादा गुरु के पावन चरणों की त्रिकाल वन्दना करता हूँ... हे गुरुवर! जिस तरह आप ज्ञानाभ्यास के अध्यवसायी थे उसी प्रकार आपके लाड़ले आचार्य भी ज्ञानार्जन में सतत लगे रहते थे और अपने आवश्यकों का समय पर पालन करते। उनकी चर्या-क्रिया से हर कोई प्रभावित होता । इस सम्बन्ध में ब्यावर निवासी श्रीमती मुन्नी अजमेरा भीलवाड़ा ने मुझे कुछ संस्मरण लिखकर दिए जो आपको बता रहा हूँ| -
(१) प्रवचन से पूर्व मंगलाचरण पश्चात् जिनवाणी स्तुति
‘‘ब्यावर चातुर्मास का साक्षी होने का मुझे भी परम सौभाग्य प्राप्त हुआ आचार्यश्री जी नितप्रति प्रवचन से पूर्व मंगलाचरण बोलते थे वह मुझे आज तक याद है -
तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः ।
दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ।।१।।
आचार्यश्री के आध्यात्मिक प्रवचन होते हुए भी हम लोगों को बहुत अच्छे लगते थे क्योंकि उनकी हिन्दी में कन्नड़ टोन था। घने घंघराले बाल, बड़ी-बड़ी आँखें, सूर्य के समान तेज आभामण्डल को निहारकर असीम शान्ति मिलती थी। प्रवचन कब समाप्त हो जाता था पता ही नहीं चलता था। अन्त में आचार्यश्री स्वयं यह जिनवाणी स्तुति बोलते थे -
वीर हिमाचल ते निकसी,
गुरु गौतम के मुख कुण्ड ढरी है...
(२) आचार्यश्री के ज्ञान का चमत्कार
आचार्यश्री का सबसे बड़ा चमत्कार यह देखा कि पण्डित हीरालाल जी शास्त्री उनके साथ स्वाध्याय करने के लिए आनाकानी कर रहे थे, किन्तु आचार्यश्री की रुचि देखकर आधे घण्टे का समय निश्चित किया था परन्तु आचार्यश्री का क्षयोपशम और ज्ञान का पैनापन देखकर वे चकित रह गए। उनको पता ही नहीं चलता कितना समय निकल गया। जो समय अन्यत्र देते थे वह समय देना बंद कर दिया और आचार्यश्री के पास अधिक से अधिक समय रहने लगे।
(३) आचार्यश्री का अनुशासन
आचार्यश्री के साथ में क्षुल्लक मणिभद्रसागर जी, क्षुल्लक स्वरूपानंदसागर जी थे। एक दिन आहारचर्या के लिए शुद्धि करते समय क्षुल्लक स्वरूपानंदसागर जी के कमण्डल का हत्था टूट गया। तो आचार्यश्री बोले- बिना कमण्डल के आहार चर्या के लिए नहीं जा सकते।' आचार्यश्री ने क्षुल्लक जी को उस दिन का उपवास दिया। इस तरह आचार्यश्री किसी भी प्रकार का प्रमाद या दोष स्वीकार नहीं करते थे।
(४) आचार्यश्री के प्रवचन से युवाओं में उत्साह
आचार्यश्री का एक प्रवचन ‘धर्म पर आस्था' से प्रभावित होकर हम लोगों ने ‘अकलंकनिकलंक' नामक नाटक किया था। चातुर्मास के अंत में सिद्धचक्र मण्डल का भव्य आयोजन आष्टाह्निक पर्व के दौरान हुआ ऐसा आयोजन मैंने आज तक नहीं देखा । प्रतिदिन आचार्यश्री का प्रवचन होता था।"
इस तरह मेरे गुरु संघस्थ साधकों को अनुशासित रखते और स्वयं भी आत्मानुशासित रहते। ऐसे अनुशास्ता के चरणों में त्रिकाल वन्दन करता हूँ...
आपका शिष्यानुशिष्य