पत्र क्रमांक-२०२
१२-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
अर्हत्-प्रवचन-बहुश्रुत भक्ति में तत्पर दादागुरु परमपूज्य महामुनिराज श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल नमोऽस्तु करता हूँ...
हे गुरुवर! आप जब कभी जिनधर्म प्रभावना का निमित्त मिलता तो आप निजशक्ति प्रमाण प्रभावना करते। इसी प्रकार आपके प्रिय आचार्य मेरे गुरुवर ब्यावर चातुर्मास में अपनी चर्या, क्रिया एवं प्रवचनों के माध्यम से जिनधर्म श्रमण संस्कृति की प्रभावना करते । इस सम्बन्ध में अजमेर के पदमकुमार जी एडव्होकेट ने जैन संदेश ९ अगस्त ७३ की कटिंग दी एवं इन्दरचंद जी पाटनी ने जैन गजट' ७ अगस्त ७३ की एवं जैन मित्र' वीर सं. २०९९ श्रावण सुदी ११ की कटिंग दी जिसमें अमरचंद जी रांवका का समाचार इस प्रकार प्रकाशित है -
ब्यावर में महती प्रभावना
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का चातुर्मास आनन्द पूर्वक हो रहा है। इसी सन्दर्भ में २९ जुलाई को पूज्य महाराज श्री का विज्ञान और अध्यात्म ज्ञान पर लक्ष्मी मार्केट में सार्वजनिक भाषण हुआ जिसमें महाराज श्री ने बताया कि सच्चा विज्ञान वही है जिससे आत्मा कलंक रहित होकर निखर उठे और अपने शुद्ध स्वभाव में स्थिर हो जाये। वर्तमान विज्ञान भौतिक विज्ञान है इसकी सफलता आध्यात्मिक विज्ञान के साथ है।
इसी अवसर पर दि. जैन संघ मथुरा के सुयोग्य प्रचारक विनयकुमार जी पथिक की उपदेशमयी कथाओं से तथा संगीत द्वारा बड़ी धर्म प्रभावना हुई। दि. ३-८-७३ को आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का प्रातः केशलोंच हुआ। धर्म की महती प्रभावना हुई।''
इस तरह चातुर्मास में कई प्रवचन हुए जो चातुर्मास स्मारिका में प्रकाशित है। जिनका सार संक्षेप आपको भेज रहा हूँ -
रक्षाबंधन
(१४-०८-७३) रक्षाबंधन अद्भुत पर्व है यह वह बंधन है जिससे मुक्ति नहीं हाँ यह बंधन भी मुक्ति में सहायक है तो कैसे? बंधन किसके लिए? रक्षा के लिए! रक्षा किससे? दुःखों से, संकटों से! मनुष्य ही अपनी बुद्धि और शारीरिक सामर्थ्य से अपनी और दूसरों की रक्षा कर सकता है। रक्षा के लिए ही धर्म का विश्लेषण है। आज के दिन की महत्ता इसलिए तो है कि आज एक महान् आत्मा ने रक्षा का महान् कार्य सम्पन्न कर संसार के सामने रक्षा का वास्तविक स्वरूप रखा। स्वयं की परवाह न करते हुए अन्य की रक्षा करना यह है इस पर्व के मनाने का वास्तविक रहस्य। विष्णुकुमार मुनिराज ने बंधन को अपनाया, पद को छोड़कर मुनियों की रक्षार्थ गए क्यों? वात्सल्य के वशीभूत होकर-धर्म की प्रभावना हेतु । यह है सच्चा रक्षाबंधन । रक्षाबंधन को सच्चे अर्थों में मनाना है तो अपने भीतर करुणा को जागृत करें, अनुकंपा, दया, वात्सल्य का अवलंबन लें। आषाढ़ और सावन के जल भरे काले बादलों की करुणा ही जीवन प्रदायनी होती है। जो गरजते ही हैं वरसते नहीं उन्हें कौन पूछता है, कौन आदर देता है? रक्षाबंधन पर्व का अर्थ है कि हममें जो करुणाभाव है वह तन-मन-धन से अभिव्यक्त हो।‘सत्वेषु मैत्री' इसका नाम है रक्षाबंधन। गांधी जी की महानता का भी यही कारण है, वे परम कारुणिक थे। रक्षाबंधन पर्व एक दिन के लिए नहीं है, हमारे वात्सल्य-करुणा एवं रक्षा के भाव जीवनभर बने रहें, इन शुभ संकल्पों को दोहराने का यह स्मृति दिवस है।
स्वतंत्रता दिवस
(१५-०८-७३) जगत् का आध्यात्मिक गुरु भारत सत्य और अहिंसा का प्रबल समर्थक और उन्नायक है। सभी के लिए सुग्राह्य है, यही सबके मूल में है, यही सुख प्रदान करने वाला है। स्वतंत्रता स्वभाव है, परतंत्रता विभाव है। स्वतंत्रता मुक्ति है, परतंत्रता बंधन है। स्वतंत्रता सुखदायी है, परतंत्रता दुखदायी है। भारत को स्वतंत्र हुए २६ वर्ष हो गए, परन्तु क्या वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त हो गयी। स्वतंत्र व्यक्ति कभी दुखी नहीं होता। उसके सामने कष्ट नहीं रहते, उसके पास तो उल्लास, प्रेम और शान्ति रहती है। द्वेष तो दुःख का कारण है। आज हम स्वतंत्र नहीं! स्वच्छंद हैं, स्वेच्छाचारी हैं और इसलिए दुखी हैं।
स्वतंत्रता का मतलब है अपने आप पर नियंत्रण करना। आज दूसरों को अपने बस में करने की होड़ लगी हुई है। खुद की ओर दृष्टि ही नहीं जाती। सच्ची स्वतंत्रता विकास को जन्म देती है, विनाश को नहीं। सौमनस्यता पैदा करती है वैमनस्यता नहीं। स्वतंत्रता दिवस के इस पुनीत पर्व पर हमें आत्म विश्लेषण कर सच्ची स्वतंत्रता पाने का दृढ़ संकल्प कर जीवन को ज्योतिर्मय बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
नि:शंकित अंग
(१६-०८-७३) साधक को अपने साध्य की प्राप्ति हेतु पहले शंका का परित्याग करना होगा। उसे वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित धर्म में अटल श्रद्धान धारण करना होगा। जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित धर्म के अनेकान्त स्वरूप का दृढ़ता से आलंबन करने वाला जीवन तीन काल में भी दु:ख का अनुभव नहीं कर सकता।'ही' को हटाकर 'भी' का प्रयोग करने वाला साधक अनेकान्त के रहस्य को समझने वाला होता है। जो दूसरों के अस्तित्व को मिटाना चाहता है वह नास्तिक है। जो दूसरों के विकास को नष्ट करने का इच्छुक है वह हिंसक है। अपना ही अस्तित्व महत्त्वपूर्ण नहीं है, दूसरों के अस्तित्व को मानने के लिए भी तत्पर रहना आवश्यक है।
नि:कांक्षित अंग
(१७-०८-७३) नि:कांक्षित अंग के धारण करने से गृहस्थ का जीवन भी अनासक्त हो जाता है। अतः दूसरों के वित्त व वैभव को देखकर ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कर्मों के कारण जो कुछ उपलब्ध है उसे भी मिटाना ही है अतः सदैव त्याग की ओर लक्ष्य रखना चाहिए।
निर्विचिकित्सा अंग
(१८-०८-७३) निर्विचिकित्सा अंग को धारण करने वाले साधक के हृदय में संवेगभाव जागृत होता है। वह आत्मा की ओर लक्ष्य रखता है, आत्मा न गंदा है, न स्वच्छ है और न मूर्त है वह तो अमूर्त है। यह शरीर पुद्गल है, जड़ है, स्वाभाविक रूप से अस्वच्छ है, परन्तु इसमें निवास करने वाला आत्मा निर्मल है, शुद्ध है। सुगंध-दुर्गन्ध तो पर्याय है। यथार्थ में वही मनुष्य है, वही महान् आत्मा है जो अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखता है।
अमूढदृष्टि अंग
(१९-०८-७३) सच्चे और झूठे तत्त्वों की परख कर मूढताओं और अनायतनों में नहीं फँसना चौथा अमूढदृष्टिअंग है। अज्ञान का नाश कर ज्ञान की वृद्धि करना और तदनुरूप आचरण करना अमूढता है। आज जीवन के हर क्षेत्र में, धर्म में, लौकिक व्यवहार में, शिक्षण में, खाने-पीने और पहनने में रूढ़िवाद व्याप्त है। इस अंग के धारक के जीवन में रूढ़ीवाद का कोई स्थान नहीं होता है। दूसरे के सहारे को छोड़ने की इच्छा जिसमें होती है वह रूढ़ीवाद को नहीं अपनाता। नैतिकशिक्षा के अभाव में लौकिकशिक्षा महत्त्वहीन है। वर्तमान का ज्ञान सीमित और संकीर्ण है। उसमें पूर्णता लाने का लक्ष्य बढ़ाना चाहिए। ज्ञान का उपयोग आज उदरपूर्ति के लिए किया जा रहा है यह मूढता है। इससे उद्धार सम्भव नहीं है। ज्ञान का उपयोग अहित के परिहार और हित के सम्पादन में होना आवश्यक है। सम्यग्दृष्टि जीव सामग्री का उपयोग जीवन चलाने हेतु नहीं अपितु जीवन को सुधारने हेतु करता है।
उपगूहन अंग
(२०-०८-७३) यह अंग हमें सिखाता है कि दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। दूसरों के अवगुणों को हमें छिपाना चाहिए। उन्हें प्रकटकर उनका ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिए, साथ ही अपने गुणों को छिपाना चाहिए, ताकि दंभ और अहंकार हावी न हो जाये, परन्तु आज इससे विपरीत स्थिति देखने में आती है। हम यह भूल गए हैं कि सूरज पर कीचड़ उछालने से या धूल उछालने से उसका कुछ नहीं बनता-बिगड़ता, अपितु हम ही कलुषित होते हैं। दूसरों पर कलंक कालिमा मड़ने से अपने मन की कालिमा ही अभिव्यक्त होती है। हम यदि विकास चाहते हैं, तो हमें गुणग्राही बनना चाहिए। गुणग्राही स्वयं भी सुखी होता है और दूसरों को भी सुखी बनाने में कारण बनता है। धर्मात्मा वही है जो स्वयं भी सुखी बने और दूसरों को भी सुखी बना दे। सच तो यह है कि अपने को लघु मानना महान् बनने की भूमिका है।
स्थितिकरण अंग
(२१-०८-७३) स्वयं जीते हुए दूसरे को भी जीवित रखना, बिगड़ती हुई स्थिति को बनाना इसी अंग का प्रतीक है। तन-मन-धन से जो स्वयं का जीवन चलाने में समर्थ है उसे यथाशक्ति दूसरों के जीवन की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हम अपने लिए न जियें, हमारा जीवन दूसरों के लिए भी उपयोगी बने, यही हमारी भावना होनी चाहिए। गिरे हुए को बाँह पकड़कर ऊँचा उठाने वाला व्यक्ति महान् होता है, यही सच्चा धर्म है। आज समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों एवं रूढ़ियों के कारण नई पीढ़ी धर्म से विमुख हो रही है। हमारा कर्तव्य है कि उन्हें धर्म से विचलित होने से बचावें। हमें पाप का बहिष्कार करना चाहिए, पापी का नहीं।
वात्सल्य अंग
(२२-०८-७३) करुणा की अभिव्यक्ति वात्सल्य में है। वात्सल्य का धारक उदारहृदयी होता है। और उसकी अहम् की अभिव्यक्ति दूर हो जाती है। साधर्मियों के प्रति प्रेम का, सरलता का व्यवहार करना चाहिए। लोकाचार के रूप में मृतक के प्रति ऐसा दिखावा अवश्य किया जाता है। जबकि आज परस्परिक व्यवहार में सहजता सरलता और वात्सल्यभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। यह सच्चा वात्सल्य नहीं यह तो ढोंग है, आडम्बर है। दूसरों के और स्वयं के जीवन को मिटाने वाला काल है, अतः क्यों हम किसी के जीवन में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न कर दूसरों को दुखी करें । दूसरों को दुख देने वाला खुद कभी चैन से नहीं रह सकता। अतः अपने तथा पर के प्रति वात्सल्य भाव रखना चाहिए। तभी हम इन दुःखों से बच सकते हैं। दूसरों के प्रति अभद्र विचार स्वयं को दु:ख में डालने के कारण बनते हैं। सरलता, सहृदयता, करुणा आत्मा का स्वभाव है। सुरक्षा सद्भावों में है, दुर्भावों से जीवन नष्ट हो जाता है। शिक्षा तभी हितकारी होती है जब हम स्वयं भी शिक्षा के अनुसार आचरण करें। आनंद की प्राप्ति वात्सल्य में है।
प्रभावना अंग
(२३-०८-७३) साधारण अर्थ में प्रभावना का आशय स्वार्थ परायणता का त्याग परहित का ही लक्ष्य है। परहित साधन हेतु दर्शनशुद्धि आवश्यक है। ‘‘अज्ञान-तिमिर व्याप्ति-मपाकृत्य यथायथम् । जिन-शासन-माहात्म्य प्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥'' परहित साधन धन अथवा अन्य प्रकार की सहायता देने में ही सीमित नहीं होता। उसका प्रतिपालन तो व्यक्ति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कर सकता है। हमारी आत्मा की भावना का परहितापेक्षी होना ही प्रभावना है। महात्मा दूसरे के कल्याण के लिए अपने जीवन को भी समर्पित करने में नहीं हिचकिचाते हैं, यह सबके लिए अनुकरणीय है, यह प्रभावना आत्मोद्धारक है। दूसरे की व्यथा को देखकर हमारी सम्पूर्ण आत्मा ही शारीरिक अवयवों के माध्यम से सहानुभूति अभिव्यक्त करती रहती है। इस अंग को धारण करने वाला किसी से ईष्र्या नहीं करता। वह दूसरों के विकास को देखना चाहेगा और उसमें हर्ष प्राप्त करेगा। द्वेष भाव प्रभावना का घातक है। तीर्थंकर अपने जीवन के अन्तिमक्षण तक यही उपदेश देते हैं-‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्' परस्पर में एक-दूसरे की कमियों को दूर कर जीवन को सम्पूर्ण बनाने की दृष्टि रखना यही सच्चा विश्वप्रेम है।
शान्ति का उपाय
(२४-०८-७३) सब जीव शान्ति पाना चाहते हैं, शान्ति कोई बाहर की वस्तु तो है नहीं जो उधार माँग ली जाये या खरीद ली जाये । शान्ति का निवास हमारी अपनी आत्मा में है और उसकी प्राप्ति तभी सम्भव है जब हम अपना जीवन सम्यक् बनायें। आज उपदेश सब सुनते हैं, परन्तु उसको जीवन में उतारने का प्रयत्न कितने व्यक्ति करते हैं। यह मानवीय दुर्बलता है। मन की गति को रोकने का प्रयत्न करें, तो शान्ति सम्भव है सम्यग्ज्ञान के आ जाने पर मन को रोकने की कला प्राप्त हो जाती है।
सच्चा सुख कहाँ
(२५-०८-७३) आत्मा की प्रफुल्लता ही सच्चा सुख है, किन्तु आज अज्ञान रूपी मल के कारण आत्मा का ज्ञानरूपी मणि अपनी शक्ति को प्रकट करने में असमर्थ है। अज्ञानरूपी कर्दम को धोने पर ही उज्ज्वलता प्राप्त हो सकती है। सुख का साधन विषय-भोग नहीं अपितु उनका त्याग है। जहाँ ज्ञानरूपी दीपक प्रज्ज्वलित है, मनरूपी हाथी नियंत्रित है और वैराग्य ही सभी वृत्तियों का संचालक है वहाँ सच्चे सुख की उत्पत्ति अवश्यंभावी है।
सम्यग्ज्ञान
(२६-०८-७३) ज्ञान आत्मा का सहज स्वभाव है यदि सम्यग्ज्ञान नहीं है तो तीन काल में भी सुख का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। केवल शाब्दिक ज्ञान किसी काम का नहीं। वही ज्ञान सच्चा ज्ञान है जो सुख को देने वाला और दुःख को दूर करने वाला हो। जो व्यक्ति हेय-उपादेय को सम्यक् प्रकारेण जान लेता है, वह ज्ञान सुख का अनुभव कर लेता है।
सम्यक्चारित्र
(२७-०८-७३) सुख के लिए तीन बातों की आवश्यकता होती है-श्रद्धान, विवेक और पुरुषार्थ अर्थात् चारित्र। आज व्यक्ति इनमें एक ही बात की उपलब्धि द्वारा सुख की कामना करता है यह त्रिकाल असम्भव है। ‘ज्ञान' सुख को व्यक्ति के दृष्टिपथ में अवश्य ला देता है पर उसका अनुभव कराने में असमर्थ रहता है। इस लक्ष्य तक पहुँचाने की सामर्थ्य चारित्र द्वारा आती है। चारित्र वे चरण हैं जो हमें अपने गंतव्य स्थान तक पहुँचाने में सहायता देते हैं। ज्ञान नेत्र है, नेत्र के बिना लक्ष्य का देखना कठिन है, किन्तु पैरों के बिना क्या नेत्र लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ होंगे? कदापि नहीं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सुख प्राप्ति के उपायों में चारित्र का स्थान प्रमुख है। प्रश्न यह है कि चारित्र किसे समझा जाये। चारित्र इन्द्रिय वासनाओं से दूर है, प्रमाद से परे है और उसमें विलासिता रंच मात्र भी नहीं होती। पूर्ण शक्ति के साथ एकमात्र सुनिश्चित लक्ष्य की ओर जब साधक की गति होती है तब वह चारित्रवान् कहलाता है।
विज्ञान को सहज ही निज में जगाना।
रे! हाट जाकर उसे न खरीद लाना ॥
तू चाहता उसे यदि अतिशीघ्र पाना।
जाना नहीं भटकना न कहीं न जाना ॥
इस तरह आचार्य परमेष्ठी की देशना सर्वत्र फैलने लगी। नये-नये ज्ञान चिंतन अनुभव का स्फुरण होने लगा। भव्यात्मायें आकर्षित होने लगीं। ऐसे सहज स्वाभाविक ज्ञान प्रकाश को प्रणाम करता हूँ...
आपका शिष्यानुशिष्य