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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 195 - परमपूज्य ज्ञानमूर्ति चारित्रविभूषण श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का समाधिमरण

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१९५

    ०५-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

    आत्मजयी कर्मजयी सर्वजयी मृत्युंजयी दादागुरु परमपूज्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में अपनी विनम्र श्रद्धांजलि स्वरूप प्रणति निवेदित करता हूँ... | हे गुरुवर! आपकी समाधि के समाचारों ने चहुँ ओर समाज को शोकाकुल कर दिया। गाँव-गाँव, नगर-नगर श्रद्धांजलि सभा आयोजित हुईं। जिनकी कुछ बानगी प्रस्तुत कर रहा हूँ, समाधि दिवस के दिन ही १ जून १९७३ को जैन गजट' में समाचार प्रकाशित हुआ जिसकी कटिंग कैलाश जी पाटनी से मिली-

     

    परमपूज्य ज्ञानमूर्ति चारित्रविभूषण श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का समाधिमरण

    ‘‘नसीराबाद-आज १ जून १९७३ को अजमेर से १६ मील दूर मध्याह्न साढ़े ग्यारह बजे नसीराबाद में चारित्र शिरोमणि ज्ञानमूर्ति श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का लम्बी बीमारी के बाद देहावसान हो गया। परमपूज्य महाराज श्री के अंत समय में परिणाम अत्यन्त शान्त तथा निराकुलता पूर्ण थे।

    मुनि श्री का जन्म ग्राम राणौली (जिला सीकर) राजस्थान में दिगम्बर जैन खण्डेलवाल छाबड़ा कुल में वि. सम्वत् १९५१ के माघ मास में हुआ। आपका नाम भूरामल जी था। आपके पिता श्री का नाम श्री चतुर्भुज जी तथा मातृ श्री का नाम घृतवरी देवी था।

     

    बाल्यकाल से ही पुण्योदय से आपका उपयोग अति निर्मल रहा। प्रारम्भ में राणोली ग्राम में ही आपने धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा के प्रति अनुराग आपको वाराणसी (काशी) खींच ले गया और वहाँ पर स्याद्वाद महाविद्यालय में रुचि पूर्वक अध्ययन करके आपने संस्कृत क्वीन्स कॉलेज काशी से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की तथा अपने ग्राम आ गए। अपने ग्राम आकर आपने गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने में अरुचि दिखाई और कुटुम्बी जनों के सतत आग्रह और दबाव के उपरान्त भी आपने विवाह करना स्वीकार नहीं किया और आजीवन ब्रह्मचारी रहे। ब्रह्मचारी रहने का दृढ़ निश्चय कर आपने आजीविकोपार्जन से भी उदासीनता दिखाई और अपना सारा समय शिक्षा प्रसार, गहन अध्ययन एवं ग्रन्थरचना में लगाते रहे। बीच में कुछ साल के लिए आप दांता (रामगढ़) ग्राम में अध्यापन के लिए चले गए थे। पं. भूरामल जी के नाम से प्रसिद्ध पूज्य श्री अध्ययन करके आने के पश्चात् लगभग ५१ वर्ष की वय तक कौटुम्बिक जीवन से संलग्न रहकर भी पानी में कमलपत्र के समान अलिप्त रहे। एक समय शुद्ध एवं सात्विक भोजन करते और दत्तचित्त होकर अध्ययन व लेखन में तल्लीन रहते।

     

    आपने अपने जीवन में जिन ग्रन्थों की रचना संस्कृत में की है उनको देखकर संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् भी आश्चर्य चकित रह जाते हैं। वास्तव में उन ग्रन्थों की पाण्डित्यपूर्ण रचना एवं साहित्यिक छटा देखते ही बनती है। आचार्य श्री द्वारा रचित ग्रन्थों में से कतिपय ग्रन्थ जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय, दयोदय, भद्रोदय, सम्यक्त्वसार शतक एवं विवेकोदय मुख्य हैं। संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के आप उद्भट विद्वान रहे हैं। क्लिष्ट धार्मिक एवं आध्यात्मिक विषयों को अत्यन्त सरल भाषा में सुस्पष्ट करने में आपका उपयोग आश्चर्य जनक रहा। इसी कारण अजमेर चातुर्मास के समय ज्ञान पिपासुओं द्वारा साग्रह प्रार्थना करने पर महाराज श्री ने अपने क्षीण स्वास्थ्य एवं अशक्ततावस्था की अपेक्षा करके भी समयसार ग्रन्थ पर जयसेनाचार्य द्वारा रचित संस्कृत टीका का अत्यन्त सरल हिन्दी में अनुवाद करके जन साधारण के लिए बोधगम्य बना दिया।

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    इस तरह कुटुम्ब से अंशतः सम्बद्ध रहकर भी उदासीन व त्यागमय जीवन में अध्ययन, अध्यापन व ग्रन्थ लेखन का कार्य करने के पश्चात् लगभग ५१ वर्ष की आयु में आपने गृह त्याग कर दिया एवं ब्रह्मचारी, क्षुल्लक तथा ऐलक अवस्था में लगभग १४ वर्ष रहे। मुनि संघ में आकर भी आप आचार्य श्री १०८ श्री वीरसागर जी महाराज के समय से ही त्यागी एवं मुनि वर्ग को विधिपूर्वक शास्त्राध्ययन कराते रहे । वि. संवत् २०१६ में आपने आचार्य श्री १०८ श्री शिवसागर जी महाराज से जयपुर में मुनि दीक्षाग्रहण की । साधु अवस्था में आपको ज्ञानसागर जी नाम दिया गया।

     

    आपने स्वयं तो समाज का परम कल्याण किया ही, साथ ही साथ आपने अपने शिक्षण दीक्षण द्वारा समाज को ऐसे नर रत्न दिए हैं, जो समाज की अनुपम निधि बन गए हैं और जिनके द्वारा अनेक वर्षों तक ज्ञान ज्योति प्रज्ज्वलित होती रहेगी तथा मानव कल्याण होता रहेगा। आपके परम शिष्य श्री १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज ने २२ वर्ष की उम्र में मुनि दीक्षा लेकर जो अतिशय प्रदर्शित किया, उसका इसी प्रकार ‘जैन गजट' में o७ जून १९७३ को कई स्थानों के समाचार प्रकाशित हुए-

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    “अजमेर में ०३-०६-७३ को धर्मवीर रायबहादुर सेठ सर भागचंद जी सा. सोनी की अध्यक्षता में परमपूज्य ज्ञानमूर्ति श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज के प्रति श्रद्धांजलि समर्पित करने हेतु एक सभा का आयोजन किया गया। “दांता-रात्रि में ८ बजे श्री मन्दिर जी के चौक में श्रद्धांजलि सभा का आयोजन हुआ। ‘‘सीकर-०१-0६-७३ को दोपहर में आचार्य श्री धर्मसागर जी ससंघ के सान्निध्य में आचार्य ज्ञानसागर जी का समाधिदिवस मनाया गया। ‘सरवाड़-०१-०६-७३ को स्मारक में वयोवृद्ध चारित्र विभूषण ज्ञानमूर्ति परमपूज्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का स्वर्गवास होने पर श्रद्धांजलि सभा का आयोजन हुआ। ‘‘मदनगंज-किशनगढ़-०२ जून ७३ को रात्रि ८ बजे दिगम्बर जैन समाज ने श्री कुन्थुसागर दिगम्बर जैन विद्यालय में श्री ताराचंद्र जी पाटोदी की अध्यक्षता में परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती ज्ञानमूर्ति आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज की दिव्य सल्लेखना मरण पर सादर श्रद्धांजलि अर्पित की। ‘‘कुचामन-आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज के निधन के समाचार रेडियो द्वारा जानकर समस्त दिगम्बर जैन समाज की मीटिंग यहाँ श्री नागौरी रोड के मन्दिर जी में की गयी और उद्भट विद्वान् व त्यागी तपस्वी साधु की हानि हुई इस हेतु श्रद्धांजलि समर्पित की गयी। ‘जैन गजट' २८ जून १९७३ ‘‘कुचामन श्री १०८ श्री विजयसागर जी महाराज की उपस्थिति में तथा श्री सेठ पूनमचंद जी पाण्ड्या के सभापतित्व में ज्ञानमूर्ति श्री १०८ श्री आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के स्वर्गवास होने पर समस्त दिगम्बर जैन समाज की ओर से श्रद्धांजलि सभा की गयी।" इसी प्रकार ‘जैन मित्र' वीर सं. २४९९ ज्येष्ठ सुदी १४ में मारोठ का समाचार प्रकाशित है- १ जून को आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के समाधिमरण के समाचार सुनकर मुनि श्री विवेकसागर जी महाराज के सान्निध्य में श्रद्धांजलि सभा आयोजित हुई, जिसमें उन्होंने अपने गुरु के विषय में बड़ा ओजस्वी भाषण दिया और समाधिमरण का महत्त्व बताया।'' इस तरह कई स्थानों पर आपकी उपस्थिति की हानि होने पर और आपके प्रति श्रद्धा-भक्तिसमर्पण के प्रतीक के रूप में श्रद्धांजलि सभाएँ आयोजित की गयीं। ‘जैन गजट' ०७ जून ७३ को एक श्रद्धालु गीतकार ने भक्तिगीत लिखा-

     

    परमपूज्य प्रातः स्मरणीय बाल ब्रह्मचारी सौम्यमूर्ति परम तपस्वी

    चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के

    महाप्रयाण के पुनीत अवसर पर विनम्नश्रद्धाञ्जलि

     

    हे ज्ञान सिन्धु! हे ज्ञानदीप! शत शत वन्दन, शत शत वन्दन।

    हे बाल ब्रह्मचारी मुनीश! शत शत वन्दन, शत शत वन्दन ॥

    निज ज्ञान ज्योति द्वारा मेटा, फैला जो अज्ञानान्धकार।

    इस हेतु तजा गृह से ममत्व, बस किया लोक हित का विचार ।

    भोगों में सुख का लेश नहीं, यह जान त्याग का मार्ग लिया।

    फिर परम दिगम्बर दीक्षा ले, निज-औ-पर का कल्याण किया ॥

    हे त्यागमूर्ति ! हे धर्म दीप! चहुं ओर हुआ तव अभिनन्दन ।

    हे ज्ञान सिन्धु! हे ज्ञानदीप! शत शत वन्दन, शत शत वन्दन ॥१॥

    वह दुर्धर तप, इन्द्रिय संयम, वह परिग्रह जय कषाय छेदन।

    तुमने कर डाला हे गुरुवर! उन जड़ कर्मों का उच्छेदन ॥

    दश धर्म और व्रत समिति गुप्ति, का सदा किया तुमने पालन।

    द्वादश अनुप्रेक्षा चिन्तन कर, कीना अन्तर्मल प्रक्षालन ॥

    हे परम तपोनिधि गुरु! तुम्हें, भाया जीवन भर आकिंचन ।

    हे ज्ञान सिन्धु! हे ज्ञानदीप! शत शत वन्दन, शत शत वन्दन ॥२॥

    तुम रहे सदा करुणा सागर, पर राग-द्वेष से दूर रहे।

    तुम रहे सदा सिद्धान्त निष्ठ, पर पक्ष-पात से दूर रहे ॥

    थी अनेकान्त पर दृष्टि सदा, था गहन अध्ययन आगम का।।

    तुम थे ऐसे दृष्टा चेता, था लेश नहीं संशय भ्रम का ॥

    हे सत्य धर्म के उन्नायक! जीवन भर किया तत्त्व चिन्तन ।

    हे ज्ञान सिन्धु! हे ज्ञानदीप! शत शत वन्दन, शत शत वन्दन ॥३॥

    सब आधि-व्याधियाँ उदित हुई जब जरा जन्य कृशता फैली।

    तब शान्त निराकुल रह तुमने, अति तीव्र वेदना भी सहली ॥

    त्यागे तुमने अन्नादि भोज्य, पेयों पर ही कर अवलम्बन।

    काया से भी ममता त्यागी, धारा व्रत उत्तम सल्लेखन ॥

    हे वीर सन्त! कर वीर मरण, तड़ तड़ तोड़े भव के बन्धन।

    हे ज्ञान सिन्धु! हे ज्ञानदीप! शत शत वन्दन, शत शत वन्दन ॥४॥

     

    इस तरह आपकी ज्ञान-तप-साधना की सुगन्धि दिग्दिगन्तों में फैली हुई थी। ऐसे यशोविजयी गुरुवर के चरणों का स्मरण हृदय को आह्लादित करता है, मन को शान्ति प्रदान करता है, भावों को पवित्रता देता है, उपयोग को स्थिर करता है और श्वासों को सफल करता है। ऐसे पावन चरणों को हर पल स्मरण करता हुआ...

    आपका शिष्यानुशिष्य

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