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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 187 - अप्रमत्त गुरु ने अप्रमत्तता सिखायी

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१८७

    २२-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

    परमात्म उपासक, आत्म उपासक क्षपकराज दादागुरु के श्री चरणों में मस्तक झुकाता हूँ... हे गुरुवर! जिस तरह आप बड़ी बारीकी से अपने आप पर दृष्टि रखे हुए थे और प्रतिक्षण अपने उपयोग को या तो शुद्धोपयोग में लगाते या शुभोपयोग में लगाते । इसी प्रकार आपके आज्ञानुवर्ती लाड़ले शिष्य अपनी चर्या के साथ-साथ प्रिय आचार्य आपकी प्रतिसमय की क्रियाओं पर दृष्टि रख रहे थे। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने भीलवाड़ा में बताया-

     

    अप्रमत्त गुरु ने अप्रमत्तता सिखायी

    ‘‘फरवरी १९७३ का समय था नसीराबाद में गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज की समाधि चल रही थी। तब एक दिन प्रात:काल भक्तामर स्तोत्र का सस्वर पाठ कर रहे थे। उन्हें कई स्तोत्र याद थे, जिन्हें वे सुबह-दोपहर-शाम अलग-अलग स्तोत्र का पाठ करते रहते थे। उनके साथ हम लोग भी पाठ दोहराते थे किन्तु गुरु महाराज तो पूर्णत: सावधान रहते थे और हम लोग के प्रमाद के कारण कोई गलत पाठ बोलने में आ जाता तो वे रुक जाते थे और आँख उठाकर देखते एवं धीरे से मुस्कुराते हुए फिर पाठ आगे पढ़ना चालू कर देते थे। हम लोगों को अपनी गलती महसूस होती।''

     

    इस तरह हे गुरुदेव! आप स्वयं सावधान रहकर संघस्थ शिष्यों को भी सावधानी सिखा गए। जो आज हम अपने गुरुदेव में शत-प्रतिशत देख रहे हैं। ऐसे गुरुदेव के चरणों में सावधानी पूर्वक त्रिकाल | त्रिभक्ति पूर्वक नमोऽस्तु करता हुआ...

    आपका शिष्यानुशिष्य

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