पत्र क्रमांक-१८६
२१-०४-२०१८
ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
चारित्र विभूषण चारित्र चक्रवर्ती दादागुरु ज्ञानसागर जी महाराज के श्री चरणों में त्रिकाल नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! जिस तरह आप चारित्र शुद्धि में सजग थे। इसी प्रकार मेरे गुरुवर भी स्वयं तो सजग रहते ही, आचार्य बनने के बाद अपनी जवाबदारी के प्रति भी सजग रहते । वे अपने आचार्यत्व को बखूबी से समझने लगे थे। यही कारण है कि संघस्थ साधुवृन्दों को वात्सल्य पूर्वक व्रतों के प्रति सावधान करते थे। इस सम्बन्ध में नसीराबाद के आपके अनन्य सेवक भागचंद जी बिलाला ने भीलवाड़ा में बताया-
चारित्रशुद्धि में सजगता
“आचार्य पद पर आसीन होने के बाद फरवरी माह में एक दिन किसी श्रावक ने आचार्य श्री विद्यासागर जी को बताया कि ऐलक महाराज जी आहार में भष्म लेते हैं। तब आचार्य श्री ने पूछा- ‘कब से ले रहे हैं?' तो श्रावक ने कहा मुझे ज्ञात नहीं। आचार्य श्री के कहने से वह ऐलक जी को बुला लाया। आचार्य महाराज ने बड़े ही प्रेम से पूछा- ‘महाराज! आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है क्या?' ऐलक जी । बोले-‘आचार्यश्री जी बिल्कुल ठीक है।' तब आचार्यश्री ने कहा- आप आहारचर्या में कौन-सी औषधि लेते हैं?' तो उन्होंने कहा-‘महाराज! मुझे भूख नहीं लगती इसलिए मैं आयुर्वेदिक दवा की भष्म लेता हूँ। तो आचार्यश्री जी बड़े ही वात्सल्य भाव से बोले- ‘महाराज! भूख के रोग को मिटाने के लिए ही अपन ने दीक्षा ली है और आपने गृहस्थावस्था में पूजा में क्षुधा रोग विनाशनाय का अर्घ्य भी चढ़ाया होगा। अगर भूख नहीं लग रही है तो अच्छा ही तो है। इसलिए दवा लेना उपयुक्त नहीं है अतः आपको यह दवा बन्द कर देना चाहिए।' तब ऐलक जी बोले- ‘महाराज! मुझे तो आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने कभी मना नहीं किया।' तब आचार्य श्री विद्यासागर जी बोले- ‘वह तो सही है किन्तु अधिक भस्म नहीं लेना चाहिए। इससे नुकसान हो सकता है क्योंकि ये बहुत गरम होती हैं, साधना में बाधा पड़ सकती है अतः अब आपको नहीं लेना है। इस तरह आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज प्रारम्भ से ही चारित्र शुद्धि के प्रति दृढ़ता एवं सावधानी रखते थे।
इस तरह जैसा आपको करते देखा वैसे ही मेरे गुरुवर ने अपने अन्दर आचार्यत्व को जगा लिया था। ऐसे गुरु-शिष्य के चरणों में नमस्कार नमस्कार नमस्कार...
आपका शिष्यानुशिष्य