पत्र क्रमांक-१८२
१६-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
आत्मसाक्षात्कार की गहन समाधि में लीन ज्योतिर्मय दादागुरु चारित्रविभूषण ज्ञानमूर्ति चारित्रचक्रवर्ती क्षपक महामुनिराज श्री १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज के आदर्श चरणचिह्न स्थापक चरणाचरण को त्रियोग-त्रिभक्तिपूर्वक-त्रिकाल नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर ! सन् १९७३ वर्ष आपकी जिन्दगी का वह महत्त्वपूर्ण पड़ाव था जब आप नश्वर देह में भगवान आत्मा के शुद्ध स्वरूप का सम्वेदन कर रहे थे। तब आपके निकटस्थ मेरे गुरु उस भगवत् चेतना का दिव्य बोध स्पर्श पा रहे थे या यूँ कहूँ कि चेतना का परिमार्जन-परिष्कार एवं विकास की कला का प्रयोगात्मक ज्ञान पा रहे थे।
हे गुरुवर! आप ज्यों-ज्यों मानवीय चेतना की शिखर यात्रा कर मंजिल के करीब पहुँच रहे थे त्यों-त्यों आपके बाहर में जुड़ा सब छूटता जा रहा था-अन्न, फल, दूध फिर पानी भी । कलिकाल की विपरीतता एवं हीन संहनन के बावजूद मानव जीवन की सफलता को हासिल करना असामान्यअसाधारण महाघटना है जो आप जैसे बिरले महापुरुष ही कर पाते हैं। चेतना की वृत्तियों को निजत्व के लिए सहज-सरल स्वाभाविकता से संपादित संचालित करके आपने अपने जीवन को सम्पूर्ण-समग्र ही नहीं बनाया अपितु अपने लाड़ले शिष्य, प्रिय आचार्य, निर्यापक गुरु को भी चेतना के अद्वितीय रहस्यों को दिखाया है।
हे गुरुवर! आपने सहस्राधिक वर्षों के बाद श्रमण संस्कृति के लोक में महाक्रान्ति का जो बीजारोपण किया वह आज वट वृक्ष बनकर सर्वज्ञ कथित संस्कृति की शीतलछाया में सच्चे मुमुक्षुओं को शान्ति आनन्द प्रदान कर रहा है। साथ ही भौतिकता की चकाचौंध में भटकी-अटकी चेतनाओं को इच्छाओं-कामनाओं-वासनाओं एवं अज्ञान अंधकार रूप विदग्ध संसार से निकलने के लिए अक्षय प्रकाश दे हस्तावलंबन प्रदान कर रहा है या यूँ कहूँ कि मिथ्या, असत्य, दु:खदायी, मर्त्य संसार में भव्यात्माओं को महाबेहोशी से उठाकर द्रव्य की महासत्ता से आत्मसाक्षात्कार करा रहा है।
हे तात! आपकी महत् कृपा से आज हम शिष्यानुशिष्यों को जो मिला/मिल रहा है वह अनुपमेय अमृत है। निश्चित ही हमारा जीवन एक न एक दिन अजर-अमर-अविनाशी तत्त्वानुभूति करेगा। ददागुरु के चरणों में नमस्कार करता हुआ...
आपका शिष्यानुशिष्य