पत्र क्रमांक-१४१
२५-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
हिन्दी साहित्य सर्जक गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल वंदन करता हूँ.... हे गुरुवर! एक कहावत है
‘जाके जैसे नदिया नारे, वाके वैसे भरका।
जाके जैसे बाप-मताई, वाके वैसे लरका ।'
इस बुन्देलखण्डी उक्ति के अनुसार आपके समान ही आपके लाड़ले शिष्य ने भी हिन्दी साहित्य रचना प्रारम्भ की। उन्होंने दूसरी हिन्दी रचना कहाँ पर प्रारम्भ की इस सम्बन्ध में हमने जिज्ञासा श्री दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) के माध्यम से गुरु चरणों में रखी तब गुरुदेव ने डिण्डौरी ग्राम (म.प्र.) में २१ मार्च २०१८ दोपहर में बताया ‘‘जब मैं १९७० रेनवाल चातुर्मास में गुरुदेव के साथ में था तब पूज्य मुनि विद्यासागर जी महाराज ने पर्युषण पर्व के पहले दस-धर्म के ऊपर छन्दबद्ध काव्य सृजन किया था और वे उन काव्यों के आधार से ही पर्युषण पर्व में एक-एक धर्म पर प्रवचन करता था।' उन काव्यों को आपने भी अपने लाड़ले शिष्य के मुख से प्रवचनों में सुना था। आज वे काव्य प्रकाशित हो चुके हैं। जिनका संक्षिप्त वर्णन मैं आपको लिख रहा हूँ-
द्वितीय काव्य रचना : दस धर्म
“ब्राह्मी-विद्या-आश्रम जबलपुर से प्राप्त पाण्डुलिपि में किसी के द्वारा ०१-०८-१९७१ को दस धर्मों की काव्य रचना की प्रतिलिपि की गई है। जिसके अन्तर्गत उत्तम क्षमा एवं उत्तम मार्दव धर्म के २-२ काव्य मन्दाक्रान्ता छन्द में। उत्तम आर्जव धर्म के तीन काव्य मालिनी छन्द में । उत्तम शौच के तीन काव्य मन्दाक्रान्ता छन्द में। उत्तम सत्य धर्म के तीन काव्य मालिनी छन्द में। उत्तम संयम धर्म का एक काव्य मालिनी छन्द में, दूसरा काव्य मन्दाक्रान्ता छन्द में, तीसरा काव्य मालिनी छन्द में। उत्तम तप धर्म के दो काव्य मालिनी छन्द में, तीसरा काव्य शिखरिणी छन्द में। ०२-०८-१९७१ की प्रतिलिपि में उत्तम त्याग धर्म का एक काव्य मालिनी छन्द में, दूसरा काव्य वसन्ततिलका छन्द में, तीसरा काव्य शार्दूलविक्रीड़ित छन्द में, चौथा काव्य मन्दाक्रान्ता छन्द में । उत्तम आकिञ्चन्य धर्म के दो काव्य शिखरिणी छन्द में तीसरा काव्य मन्दाक्रान्ता छन्द में । उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म के सात काव्य मन्दाक्रान्ता छन्द में हैं।''
मेरे गुरुवर ने यह भी बताया- ‘किशनगढ़-रेनवाल चातुर्मास में ही सर्वप्रथम आचार्य शिवसागर जी महाराज की, फिर आचार्य शान्तिसागर जी महाराज की और उसके बाद आचार्य वीरसागर जी महाराज की काव्य स्तुतियाँ भी लिखीं थीं।' जो प्रकाशित होकर आपके पास आ चुकी हैं। जिनके बारे में मैं वर्णन कर रहा हूँ-
स्तुति सरोज
(१) हिन्दीभाषा में परमपूज्य आचार्य शिवसागर जी महाराज के चरणों में श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए २२ काव्य मन्दाक्रान्ता छन्द में लिखे। जिसमें जन्म-नगर औरंगाबाद अड़पुर ग्राम, गुणाढ्य पिताश्री नेमि, गुणवती माँ और पूर्व नाम हीरालाल का वर्णन है। फिर युवा अवस्था और विवाह के प्रस्ताव का ठुकराना। माँ का बिलखना बड़े ही रसमय भाव में लिखा गया है। वैराग्यपूर्ण भाव से माँ को समझाना। आचार्य वीरसागर जी से मुनिदीक्षा लेना फिर आचार्य शिवसागर जी के ज्ञान-ध्यान-साधना का वर्णन किया है। अन्त में दर्शन न कर पाने का खेद भी व्यक्त किया है और अपने आपको उनका पोता माना है। यथा-
पाया मैं तो तव दरश न, जो बड़ा हूँ अभागा,
ज्ञानी होऊँ तव भजन को, किन्तु मैं तो सुगाया।
मैं पोता हूँ भवजलधि के, आप तो पोत दादा,
‘विद्या' की जो शिवगुरु अहो, दो मिटा कर्म बाधा ॥२२॥
(२) इसी प्रकार आचार्य शान्तिसागर जी महाराज को श्रद्धांजली स्वरूप काव्य रचना लिखी। वसन्ततिलका छन्द में ३८ छन्दों की यह स्तुति प्रकाशित होकर आपके पास पहुँच चुकी है जिसमें आचार्य शान्तिसागर जी महाराज का जन्मस्थान, जिला, राज्य, ग्राम की शोभा, ग्राम के पास नदियाँ, माता-पिता का नाम, उनका व्यवसाय, आचरण, माता के गुणों का वर्णन, भाई का वर्णन, बाल-विवाह, वैराग्य का वर्णन, मुनि श्री शान्तिसागर जी महाराज के गुणों का वर्णन और स्वयं भी उनसे कहाँ प्रभावित हुए उसका वर्णन भी किया है और अन्त में अपने आपको ज्ञानसागर जी का प्रथम बाल शिष्य माना है, यथा-
थे शेडवाल गुरु जो, यकबार आये,
इत्थं अहो! सकल मानव को सुनाये।
भारी प्रभाव मुझ पे तव भारती का,
देखो! पड़ा इसलिए मुनि हूँ अभी का ॥३२॥
संतोष-कोष! गतरोष! सुशान्ति सिन्धु!,
मैं बार-बार तव पाद-सरोज वन्दें।
हूँ ज्ञान का प्रथम शिष्य अवश्य बाल,
‘विद्या' सुशान्ति-पद में धरता स्व-भाल ॥३८॥
श्री शान्तिगुरुभ्यो नमः ।
आचार्य वीरसागर जी महाराज को हार्दिक श्रद्धाञ्जलि
(३) परमपूज्य श्री १०८ आचार्य वीरसागर जी महाराज की पावन स्मृति में समर्पित हार्दिक श्रद्धांजलि स्वरूप ४३ काव्य वसन्ततिलका छन्द में लिखे, जो प्रकाशित होकर आप तक पहुँची। जिसमें हैदराबाद-राज के औरंगाबाद जिले के ईर ग्राम का सुन्दर वर्णन है। जिनालय वर्णन, पिता रामचंद्र, माँ भाग्यवती एवं दो पुत्रों का वर्णन, वैराग्य का वर्णन, शान्तिसागर जी महाराज से दीक्षा का वर्णन, तपस्या का वर्णन, शिष्यों का वर्णन एवं समाधि का वर्णन साहित्यिक शैली में किया गया है।
इस प्रकार आपश्री के संस्कारों के प्रभाव ने एवं आपश्री के काव्य साहित्य को पढ़कर मेरे गुरु भी काव्य रचना सीख गए।किशनगढ़-रेनवाल चातुर्मास से शुरु हुई लेखनी अनवरत चलती रही। ऐसे हिन्दी साहित्यकार गुरु-शिष्य के परोपकारी भावों को नमस्कार करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य