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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 130 - जनगणना में नाम के साथ जैन लिखें

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१३०

    १२-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

     

    आकाशसम निरालम्बी परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के मांगलिक चरणों में मंगल हेतु नमस्कार नमस्कार नमस्कार... हे गुरुवर! दूदू से आप ककराला होते हुए मौजमाबाद पहुँचे तब के बारे में श्री दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया-

     

    जनगणना में नाम के साथ जैन लिखें

     

    आचार्य गुरुवर एवं मुनि श्री विद्यासागर जी के केशलोंच हुए तब एक वक्ता ने कहा कि अगले वर्ष जनगणना होने वाली है। सभी लोग नाम के साथ जैन लिखें जिससे जैन समाज की संख्या का सही-सही आकलन होगा। तब गुरुवर ने अपने आशीर्वादात्मक प्रवचन में कहा- ‘सभी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नाम के साथ जैन लिखें जिससे अपनी समाज का बाहुल्य दिखे और एकता संगठन दिखे। जैन शब्द पर तो गौरव होना चाहिए क्योंकि यह शब्द तो ‘जिन भगवान से बना है। जो शाश्वत हैं अतः जैन शब्द भी शाश्वत है। बाकी गोत्र तो देशज शब्द हैं, स्थान विशेष से बने हैं, जो शाश्वत नहीं। समाज बचेगी तो संस्कृति बचेगी।'' इस सम्बन्ध में उन्होंने मुझे एक जैन गजट' १६-०४-१९७0 की कटिंग दी। जिसमें इस प्रकार संक्षिप्त में समाचार प्रकाशित थे-

     

    केशलोंच एवं रथयात्रा

     

    ‘‘मौजमाबाद-यहाँ ५ अप्रैल को रथयात्रा एवं आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी का केशलोंच हुआ। एकत्रित जनसमुदाय के बीच १९७१ में होने वाली जनगणना के समय कालम नं. १ में जैन शब्द लिखाने हेतु निवेदन किया गया। इस अवसर पर श्री १०५ क्षुल्लक सिद्धसागर जी एवं १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज का सारगर्भित उपदेश हुआ। अंत में आचार्य महाराज ने शुभाशीर्वाद दिया। (पदमचंद बड़जात्या)'' इस प्रकार आप धर्म-समाज-संस्कृति की रक्षार्थ अपने चिंतन से समाज को जागृत करते रहते थे। यही कार्य आज मेरे गुरुवर कर रहे हैं। दीपचंद जी छाबड़ा ने मौजमाबाद के २८ दिवसीय प्रवास का एक और संस्मरण सुनाया जिसे आपको सुनाने में मुझे गर्व महसूस हो रहा है कि मेरे गुरु ज्ञान विनय में कितने निष्णात थे-

     

    शास्त्रीय चर्चाओं में समय का पता नहीं चलता

     

    ‘‘परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज जब संघ सहित मौजमाबाद पहुँचे तब वहाँ पर श्री १०५ क्षुल्लक श्री सिद्धसागर जी महाराज जो झाबुआ मध्यप्रदेश के थे (उन्होंने आचार्य श्री १०८ वीरसागर जी महाराज से विक्रम संवत् १९९५ में सिद्धवरकूट मध्यप्रदेश में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की थी) वे विराजमान थे। उन्होंने संघ की आगवानी की थी और प्रतिदिन गुरु महाराज से तत्त्वचर्चा करते थे। एक दिन मध्याह्नकाल में मुनिवर श्री विद्यासागर जी महाराज ने साधक क्षुल्लक सिद्धसागर जी महाराज की प्रशंसा करते हुए कहा- आप बहुत संतोषी-शांत एवं गम्भीर स्वभावी हैं, आपका शास्त्रीय ज्ञान भी अच्छा है। अब तो आपको परिग्रह का आलम्बन छोड़कर स्वानुभूति का रसास्वादन करना चाहिए।' मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज भी प्रतिदिन क्षुल्लक जी से शास्त्रीय चर्चायें करते रहते थे। कभी-कभी तो समय कम पड़ जाता था। उनकी चर्चाओं में समय कैसे बीत जाता पता ही नहीं पड़ता। गुरु महाराज ठीक समय पर आवश्यक करते थे, तो जैसे ही वे निकलते तब समय पर ध्यान जाता कि इसका समय हो गया।"

     

    इस प्रकार आप अपने आवश्यकों के पालन में सावधान थे और मेरे गुरुवर, ज्ञानी की पहचान कर उनसे ज्ञान की चर्चा करने में सचेत रहते। ऐसे सम्यग्ज्ञानी गुरु-शिष्य के पावन चरणों में प्रणति निवेदित करता हुआ...

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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