वृक्ष की मूल आधार जड़ है, जिससे वह हरा-भरा फलफूलदार बना है। यदि मूल का अभाव हो जाए तो पेड़ सूखा सा खड़ा रहेगा। वैसे ही धर्म मार्ग की, मोक्षमार्ग की आधारशिला यदि है तो विनय है। इसलिए तो लिखा है- 'विनय मोक्ख द्वारं' विनय ही मोक्ष का द्वार है। जितना विनयवान सम्मान पाता है, उतना अभिमानी-धनवान नहीं पाता है। इसलिए विनय के महत्व को समझो। यह प्रसंग उसी के महत्व को बताता है।
आचार्यश्री एवं संघ का 5 दिन का छिंदवाड़ा में विश्राम रहा, इसके बाद 25 फरवरी 1998 को छिंदवाड़ा से विहार कर दिया नरसिंहपुर की ओर। इसी विहार काल में 27 फरवरी शुक्रवार प्रात:काल का विहार चल रहा था, इसी दौरान एक चर्चा प्रारंभ हुई।
आचार्यश्री चलते हुए बोले- 'मान कषाय मनुष्य के लिए बहुत खतरनाक है, क्योंकि संसारी मनुष्य इसी मान कषाय के कारण इस संसार में परिभ्रमण करता है, और यही मान क्रोध कषाय को प्रज्वलित करने के लिए भी कारण सिद्ध होता है।' तभी एक श्रावक ने कहा- आचार्यश्रीजी ! माना व्यक्ति को देखकर मान कषाय की और अधिक उत्पत्ति होती है।' आचार्यश्री ने उसके सामने प्रतिप्रश्न रख दिया- 'विनयी व्यक्ति को देखकर विनम्रता भी बढ़नी चाहिए। लेकिन आज ऐसा क्यों नहीं हो रहा है?
फिर इस विषय को आचार्यश्री ने एक उदाहरण देकर सभी को समझाया- 'आज वर्तमान में जैसे पहली प्रतिमाधारी के लिए जो विनय है, वो दो प्रतिमाधारी श्रावक के लिए दूनी होनी चाहिए। प्रतिमाओं में वृद्धि के अनुसार विनय में भी वृद्धि होनी चाहिए। आखिर ऐसा आज क्यों नहीं हो पा रहा है? मोक्षमार्गी के लिए सर्वप्रथम विनयशील बनना अनिवार्य होना चाहिए। अरे! विनय वह वस्तु है, जिससे एक नव-दीक्षित मुनि (विनय के द्वारा) अपने गुरु को बाँध कर रखता है। 'मान कषाय तो इस संसारी मनुष्य के लिए जन्म से ही होती हैं, लेकिन विनय जन्म से नहीं होती, इसलिए मोक्षमार्ग के प्रत्येक साधक के लिए विनय को ही अपना धर्म मानकर उसे अपना लेना चाहिए, क्योंकि कषाय तो कषाय है चाहे छोटी हो या बड़ी। एक सूत्र बना लेना चाहिए- विनय ही धर्म का मूल है। विनय निज का मूल है, ऐसा सोचने वाला सही मोक्षमार्गी है।