एक बार एक संत श्री गुलाब बाबा जी जो प्राय: करके आचार्यश्री जी के दर्शन लाभ हेतु आया करते थे। वे अपने मुख से विद्यासागर नहीं विद्या महासागर कहा करते थे। एक बार उन संत जी का आगमन अमरकंटक सर्वोदय तीर्थ में हुआ। उस समय आचार्यश्री जी अपने स्थान पर नहीं थे। बाहर दो तखत खाली रखे थे जो बराबरी के थे। उन बाबा जी से एक तखत पर बैठने को कहा गया। पर वे उस तखत पर नहीं बैठे।
बाबाजी बोले- ‘यह तो भगवान का आसन है। उनकी आसन की बराबरी से मैं नहीं बैठता।' और सामने जाकर चटाई पर बैठ गए। थोड़ी देर बाद आचार्यश्री जी आए। बाबा जी बोलते हैं बोलो श्री विद्यासागर भगवान की जय ...' और लेट गये और अष्टांग नमस्कार किया। इसके बाद उन्होंने कुशल क्षेम पूछी। फिर बस मौन बैठे-बैठे आचार्यश्री को देखते रहे।