आदमी की अपनी आंतरिक क्षमता ही सारी विषमताओं को दूर कर देती है। फिर भी यदि प्रतिकूलता है और मन भी ऐसे समय में प्रतिकूल दिशा में जाए तो वह हार का ही सामना करता है। यदि मन कमजोर न हो, तन कमजोर भी हो जाए और मन में उत्साह बना हो तब वह कभी भी हार नहीं सकता है। ऐसे समय में अपने आदर्शी की संगति में व्यतीत हुआ समय, उनके वचन हमारे लिए प्रेरणास्पद बनकर एक नई रोशनी देते हैं- जैसे पूज्य गुरुदेव का यह प्रसग।
प्रसंग : बात दयोदय तीर्थ- तिलवारा घाट जबलपुर 3 अगस्त 2001 शुक्रवार की है- चतुर्दशी का दिन था। आचार्यश्री को प्रात:काल अचानक कमर में दर्द हो गया। आचार्यश्री को पाक्षिक प्रतिक्रमण शीघ्रता में करना पढ़ा। आचार्य भक्ति के बाद आचार्यश्री ने हम सभी को बताया- 'आज तो विकल्प पूर्वक पाक्षिक प्रतिक्रमण किया। पता नहीं क्या हो गया कमर में? अभी तक तो दूसरे को कहते थे, आज स्वयं को दर्द हो गया।'
आचार्यश्री ने इशारे में कहा- 'पता नहीं क्या हो गया?' हमने आचार्यश्रीजी से कहा- 'आप जल्दी-जल्दी उपवास क्यों कर रहे हैं इस वर्षायोग में? आप तो आठ दिन में एक उपवास करते थे। अब आप 4 दिन के अंतर से कर रहे हैं? आपको नित्य इतनी कक्षाएँ लेना, संघ को देखना, समाज को भी समय देना आदि बहुत से कार्य एक साथ करने पड़ते हैं, इससे शरीर निरन्तर कमजोर हो रहा है।'
आचार्यश्री मौन! मंद-मंद मुस्कराते रहे। थोड़ी देर बाद बोले 'भाई अब मैं बूढ़ा-सा हो गया। अब तो सब काम मैं ही करूंगा ऐसा नियम नहीं है। आचार्यश्री बोले- 'मैने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी जी का समाचार पढ़ा- उन्होंने कहा है, 'मैं अपने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना चाहता हूँ क्योंकि मैं बूढ़ा हो गया हूँ। मेरा शाररिक स्वास्थ्य टिक नहीं है | और में गटबंधन वाले इस संघटन पर कंट्रोल नहीं कर पा रहा हूँ। मैं तो अब पार्टी में सामान्य सदस्य की तरह रहकर काम करना चाहता हूँ।'
आचार्यश्री हँसते हुए बोले- 'मैं भी बूढ़ा हो गया हूँ कमर दर्द होने लगा है, अब तो हमें भी अपने इस पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। मैं तो सामान्य साधुओं की तरह संघ में रहना चाहता हूँ।' हमने आचार्यश्री से कहा- 'आपने ही कहा था कि पूज्य गुरुवर आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज को पैरों में साइटिका का बहुत दर्द रहता था, उन्होंने वृद्धावस्था में भी संघ का संचालन किया, आपको पढ़ाया।'
आचार्यश्री बोले- 'अरे! उनके लिए शिष्य बहुत बाद में मिला था। मुझे तो अनेक शिष्य जल्दी-जल्दी मिल गए हैं।' तब तक अन्य महाराज बोले- 'पर आपको अभी बूढ़ा नहीं माना जाना चाहिए। आदमी तन से वृद्ध होता है, मन से नहीं।' आचार्यश्री- 'ये बात ठीक है, तन गड़बड़ कर रहा है। ये हमारा मन तो आचार्यश्री ज्ञानसागरजी ने बनाया है। इसे तो अंत समय तक जवान बनाए रखूँगा। यह उनका आशीर्वाद है, हारने वाला नहीं हूँ। 'इसके बाद सामायिक समय हो गया। खड़े हो गए आवर्त करके सामायिक में बैठ गए।