धर्म संस्कृति 8 - साहित्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- जैन साहित्य के बिना भारतीय साहित्य सम्पदा अधूरी ही मानी जायेगी।
- साहित्य तो वह सेतु है जो साधक और साधना के दो किनारों को जोड़ता है।
- हित से जो युक्त है वह है सहित और सहित का भाव ही साहित्य है।
- श्रमण संस्कृति श्रुत साहित्य की अविच्छिनता पर निर्भर है क्योंकि इस विषम काल में श्रुत साहित्य ही आदित्य का काम करता है।
- सन्तों के मानस पटल पर उठी संवेदनाओं से प्रेरित स्वपर हित के लिये चली हुई लेखनी साहित्य का निर्माण करती है।
- जैनाचार्यों ने लोकभाषा एवं जनभावनाओं को दृष्टिगत कर साहित्य को भाषा और प्रान्त की सीमा से परे रखा है।
- हमारा साहित्य उस भारतीय मनीषा से सम्बद्ध है जिसने जगत् और जीवन के रहस्य सूत्रों को जाना और परखा है। सृजन के क्षेत्र में उन्हीं सूत्रों के शिलालेख हमें अपने आगम साहित्य के पृष्ठों को समझना चाहिए।
- लेखक और शिल्पकार अपने समय का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिस युग के जनजीवन में रहकर वह सृजन करते हैं उस युग के प्रचलित रीति-रिवाजों की छाप उनके साहित्य और शिल्प पर पड़ती ही है। अत: इस बात को हमें स्वीकार करना चाहिए कि साहित्य और शिल्प इतिहास को दिखलाने के लिये दर्पण की तरह है।
- आचार्यों की लेखनी में क्या नहीं आया? जगत् और जीवन से संबंधित ऐसा कोई भी पहलू अछूता नहीं रहा जो उनकी लेखनी में न आया हो।
- श्रमण आचार्यों ने अध्यात्म के सहारे जहाँ साधना की चरम ऊँचाइयों को छुआ है तो वहीं साहित्य का सृजन भी कम नहीं किया। रात यदि साधना में गुजरी है तो सारा दिन सूरज के साथ साहित्य सृजन में।
- आचार्य कुन्दकुन्द का वाङ्गमय जहाँ अध्यात्म से भरपूर है तो वहीं आचार्य समन्तभद्र के ग्रन्थ दर्शन प्रधान है। हमें आचार्य कुन्दकुन्द का हृदय समझने के लिये आचार्य समन्तभद्र का परिचय जरूरी है और दोनों को समझे बगैर स्वयं को समझ पाना संभव ही नहीं है।
- न्याय, दर्शन, धर्म, अध्यात्म, तत्त्व मीमांसा, तीर्थ, इतिहास, भक्ति, संगीत, कलाये, राजनीति, ज्योतिष, गणित, वर्ण और समाज व्यवस्था आदि आचार-विचारों से जुड़े हुए लोक-लोकोत्तर बिन्दु जैन साहित्य की पंक्ति-पंक्ति में समाये हुए हैं।
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