व्रत विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- पाँच पापों का त्याग किए बिना व्रती नहीं बन सकते।
- विरति दो प्रकार की होती है, सकल विरति और देशव्रती। देशव्रती श्रावक का धर्म है और सकलव्रती होना मुनि धर्म है।
- एक व्यक्ति व्रती बन जाता है तो सारा परिवार प्रासुक/सात्विक हो जाता है। इससे जीवन में, परिवार में व्रत पलने लगता है, फिर आत्मा की बात रुचने लगती है।
- जिनके यहाँ सात्विक जीवन बना रहता है, उनके परिवार में व्रती आते रहते हैं।
- व्रत पालना विश्वास के साथ होता है, उसी विश्वास का नाम सम्यग्दर्शन है।
- विश्वास की कमी होने से व्रतों में कमी आ जाती है।
- हमारा जीवन संयत और संतुलित रहे तभी लक्ष्य प्राप्त होगा।
- व्रत ऐसा पक्का होना चाहिए जैसे कपड़े पर लगा पक्का रंग,जो कपड़ा फटने के बाद भी रहता है, उड़ता नहीं।
- व्रतियों को हमेशा अशुचि भावना का चिंतन करना चाहिए।
- व्रत पालन करने के लिए दृढ़ श्रद्धान की आवश्यकता होती है।
- सम्यक ज्ञान और सम्यक दर्शन सुरक्षित हो तभी विरति सार्थक है।
- व्रती हमेशा माया, मिथ्या और निदान रूप तीनों शल्यों से रहित होता है।
- सम्यक दर्शन के अभाव में पाँच पापों का त्याग सम्यकचारित्र नहीं कहलाता।
- श्रावक के १२ व्रत होते हैं, जब उन्हें अंगीकार करता है, तभी वह व्रती माना जाता है। एक पाप के त्याग करने से व्रती संज्ञा को प्राप्त नहीं हो सकता।
- व्रत के बिना समितियों का कोई महत्व नहीं होता, क्योंकि व्रत की रक्षा के लिए समिति होती है।
- व्रत होने के बाद भी मैं व्रती हूँ, इस प्रकार का विकल्प नहीं रहता, इसका नाम निश्चय व्रत है, जो कि शुभाशुभ रागादि विकल्प से रहित होता है।
- व्रतों में दृढ़ रहना, सदाचार का पालन करना और तत्वों का चिन्तन करना धर्म-ध्यान का लक्षण है।
- प्रायश्चित के बिना व्रतों का कोई महत्व नहीं होता।