साधना विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- आज तक हमने साधना, शरीर-सुख के लिए की है इसलिए सही सुख नहीं मिल पाया। यदि आत्म सुख के लिए साधना की होती, तो अभी तक शाश्वत् सुख की प्राप्ति हो गई होती।
- चारित्र का पक्ष मजबूत रहेगा तो धर्म का झंडा लहराता रहेगा। चारित्र का पक्ष उठ गया तो झंडा उड़ जावेगा मात्र डंडा हाथ में रह जावेगा।
- चारित्रमय जीवन है तो हमारा जीवन है नहीं तो नहीं।
- साधु चरित्र की ध्वजा हैं, उनको हम नमस्कार करते हैं, वे हमारी रक्षा करें।
- साधु की चर्या पालना बहुत बड़ी साधना मानी जाती है इसी के बल पर सिद्ध बनते हैं।
- साधु वही है जो मात्र अपनी आत्मा की साधना से मतलब रखता है।
- साधना प्रखर होने से विश्वास कम होते हुए भी बड़े-बड़े कार्य हो जाते हैं।
- विश्वास के साथ-साथ साधना भी आवश्यक होती है तभी लक्ष्य तक पहुँचते हैं। निरालम्ब रहने का आनंद अलग ही होता है।
- यदि हमारी कषाय में परिणति जाती है तो हमारी साधना शुरु ही नहीं हुई क्योंकि कषाय के अभाव के माध्यम से ही ज्ञात होता है हमारा समर्पण कितना है ?
- आचरण से चरण तो क्या चरण धूल भी पूज्य बन जाती है और मरण भी पूज्य हो जाता है।
- साधना को आदर्श बनाया जाता है, व्यक्ति को नहीं।
- सही दिशा में की गयी तप साधना से मोक्ष प्राप्त होता है और जब तक मुक्ति नहीं मिलती तब तक अच्छे-अच्छे पद प्राप्त होते रहते हैं।
- मन को साध लेना ही साधना है।
- नाम साधना का अर्थ होता है एक पद को लेकर ध्यान करना, यह पदस्थ ध्यान है।
- आत्मा की बात करने का अर्थ आत्मा के ऊपर लगी हुई कालिमा को साधना के माध्यम से अलग करना है।
- अभी साधना करने से आगे और स्वस्थ शरीर एवं दीर्घ संहनन प्राप्त होते हैं, जिससे अच्छी साधना एवं प्रभावना की जा सकती है।
- मोक्षमार्ग की साधना चार प्रत्ययों में पूर्ण होती है, अज्ञान निवृत्ति, पाप-विषय त्याग, आदान (व्रत ग्रहण) एवं उपेक्षा (विकल्पों की शून्यता)।
- आज यदि बड़ी साधना नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं, पर कषायों को तो कम किया जा सकता है। इसमें काया की शक्ति नहीं बल्कि आत्मा की रुचि काम करती है।
- शत्रु-मित्र से रहित भाव प्रणाली बनाये रखना बहुत बड़ी साधना है।
- समता की आरती उतारो, एक क्षण में असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होती है।
- ज्ञेय से उपयोग प्रभावित न हो यह मूल साधना मानी जाती है।
- ज्ञेय से जब हम भिन्न है तो हर्ष-विषाद क्यों करना ? ज्ञेय से प्रभावित न होना प्रौढ़ साधना मानी जाती है।
- समीचीन दृष्टि में जीना सबसे बड़ी साधना है क्योंकि दृष्टि को संतुलित रखने पर जीवन संयत बन जाता है।
- जो मन, वचन एवं काय तीनों योगों को साधता है उसके उपयोग में स्थिरता आ जाती है, उपयोग शुद्ध हो जाता है।
- हमें इस काया के अधीन नहीं होना चाहिए। बाहुबली भगवान् की साधना की ओर दृष्टि रखो। आत्मा के स्वरूप का अवलोकन करने से ही साधना सार्थक होगी।
- मोक्षमार्ग मे परीषह औषधि है कर्म रूपी रोग को निकालने के लिए।
- अपने परिणाम को मजबूत, संयत बनाने से ही हम मोक्षमार्ग पर अडिग रह सकते हैं।
- अब मोह की कथा समाप्त करो, मोक्ष की कथा प्रारम्भ हो रही है, इसी का नाम साधना है।
- तैरना तो सभी को आता है पर डूबों तो जाने, डुबकी लगाओ रत्न पाओ तो जाने कुछ साधना हुई।
- ज्ञान की अपेक्षा आत्मसाधना को प्रौढ़ता देनी चाहिए।
- तन, मन एवं धन का सदुपयोग करना ही पंचमकाल की मनुष्य पर्याय में बड़ी साधना है।
- जो दृष्टि पदार्थ को गौण करके (उससे टकराये बिना) पार कर जाती है, वही दृष्टि सही दृष्टि मानी जाती है।
- यदि कर्म के उदय, उदीरणा में अपने उपयोग को उसी रंग में रंगा दिया तो आपकी साधना कमजोर मानी जाती है।
- तात्विक दृष्टि गुप्ति की ओर ले जाती है।
- सूक्ष्म साधना से यह ज्ञात हो जाता है कि हमें दूसरों की कमजोरी न देखकर स्वयं की कमजोरी देखना चाहिए। क्योंकि छद्मस्थावस्था में उपयोग की कमजोरी बनी ही रहती है।
- आलम्बन से ही आज तक जीवन चलता आया है, अब निरालम्ब होकर जीना सीखो। तुम्बी की सहायता से तैराक हमेशा नहीं तैरता, तैरना सीख जाता है तो फिर तुम्बी का सहारा लिए बिना ही तैर जाता है।
- पहले किये गये स्वाध्याय का प्रयोग करना चाहिए फिर पुन: स्वाध्याय करना चाहिए। लेकिन जब प्रयोग होने लगेगा तो स्वाध्याय की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। अभ्यास की दशा में स्वयं प्रमाण हो जाता है फिर प्रमाण ढूंढने की आवश्यकता नहीं पड़ती शास्त्र खोलने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
- जैसे सज्जन दुर्जनों से दूर रहते हैं, वैसे ही साधु को शरीर से ज्यादा लगाव नहीं रखना चाहिए। इससे धर्म साधना करना ही सही मोह करना है।
- यह शरीर जब तक धर्म साधन में उपकार करता है, तब तक उपकरण है। जब उपकार करना बंद कर दे तब इसे वेतन (भोजन) देना बंद कर देना चाहिए, वरन् वह परिग्रह हो जायेगा।
- साधना के अलावा यदि साधक शरीर का उपयोग अन्य कार्यों में लेते हैं तो वह शरीर परिग्रह में आवेगा।
- पर का आलम्बन लेने से आत्म साधना कमजोर मानी जाती है।
- यदि भीतरी साधना जीवित है तो अभिशाप भी वरदान बन जाता है।
- मनुष्य पर्याय एक वरदान है, यदि इस शरीर से साधना नहीं की तो यह वरदान भी अभिशाप सिद्ध होगा।
- शरीर के प्रति निरीहता साधु की बहुत बड़ी साधना मानी जाती है।
- जिसका बाहरी वस्तुओं एवं शरीर के प्रति ममत्व नहीं है, वही कायोत्सर्ग कर सकता है।