अर्पण -समर्पण विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- अपनत्व में सब कुछ समर्पण किया जाता है। जैसे श्रीकृष्णजी की अंगुली कट जाने पर रुक्मणी अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर पट्टी बाँध देती है।
- स्वार्थ जहाँ से चला जाता है, वहाँ से समर्पण प्रारम्भ हो जाता है।
- समर्पण में प्रतिफल की इच्छा गौण हो जाती है।
- जिसमें समर्पण भाव रहता है, वही इस चकाचौंध के युग में भविष्य के लिए कुछ कर सकता है।
- समर्पण जीवन का आदिम एवं अंतिम साधन है।
- आगे चलकर समर्पण कर्तव्य का रूप ले लेता है।
- समर्पण के बाद ही जीवन में संघर्ष की शुरुआत होती है, इससे पीछे नहीं हटना चाहिए।
- समर्पित हुए बिना कृत्कृत्य की उपाधि नहीं मिल सकती।
- समर्पण की यात्रा कर्तव्य से पूर्ण होती है और कर्तव्य का पालन समर्पण के साथ किया जाता है।
- समर्पण के बाद कर्तव्य प्रारम्भ होता है।
- समर्पण वाला ही हव (हाँ) कहता है, नहीं तो How (कैसे) कहता है।
- मैंने भगवान् बनाया ऐसा नहीं बल्कि मैं भगवान् को समर्पित हो गया, ऐसा कह सकते हैं।
- जिनेन्द्र भगवान् का नाम रहे और हमारा दासों के दास में नाम रहे, यही समर्पण है। अपने उद्देश्य के प्रति पूर्ण समर्पित होना चाहिए।
- यदि हम उन प्रभु व गुरु के पवित्र जीवन पर समर्पित हो जाते हैं तो यह हमारा कलंकित जीवन भी पवित्र हो जाता है।
- कबूतर की तरह देव, शास्त्र व गुरु रूपी जहाज पर समर्पित हो जाओ संसार समुद्र से पार हो जाओगे ।
- एक आत्मा के साथ जब दूसरी आत्मा का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तब तन, वतन सब गौण हो जाते हैं।
- जिनवाणी की रक्षा एवं अहिंसा धर्म की रक्षा में अपना तन, मन व धन समर्पित कर देना चाहिए।
- जीवन की परवाह न करते हुए धर्म की रक्षा में समर्पित हो जाना ही सही समर्पण है।
- समर्पण में साथ किया गया कार्य ही सफलीभूत होता है।
- जो उद्देश्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाता है, वही परीक्षा में खरा उतरता है।
- प्राणियों के संरक्षण में तन, मन एवं धन समर्पण करोगे तो तुम्हारा जीवन भी अमर बन जावेगा और अविनश्वर आत्मा का मूल्य सुरक्षित होगा।
Recommended Comments
Create an account or sign in to comment
You need to be a member in order to leave a comment
Create an account
Sign up for a new account in our community. It's easy!
Register a new accountSign in
Already have an account? Sign in here.
Sign In Now