अनर्थ विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- अपने बारे में सोचो, अपने अनर्थों के बारे में सोचो दूसरे के भले के बारे में सोचो, यह अपाय विचय धर्मध्यान है और दूसरे का बुरा सोचने से दुध्यान होता है।
- अनर्थ से बचना ही प्रयोजनभूत है।
- दुर्लभ क्षणों को व्यर्थ मत गवाओ, माला फेरो, स्तुति पाठ करो। पहले के समय में चक्की चलाते रहते थे और स्तुति पढ़ते रहते थे, मन को भटकने नहीं देते थे।
- अर्थ नीति के बिना गृहस्थ का जीवन चल नहीं सकता, लेकिन अनर्थ नीति से धन इकट्ठा करना ठीक नहीं।
- प्रयोजन दूसरा होने पर हम प्रयोजनभूत को भूल जाते हैं।
- अहिंसा महाव्रत को पालने वाले रात्रि में तो बोलते नहीं है, दिन में भी निष्प्रयोजन नहीं बोलते।
- अप्रयोजनभूत को याद करने से मन की बीमारी बढ़ जाती है।
- प्रयोजन के अभाव में बोलना भी हिंसा का कारण है।
- जिस साहित्य को पढ़कर मन पापमय हो जाये, ऐसे साहित्य को दु:श्रुति बोलते हैं। इनसे हमेशा बचना चाहिए।
- निष्प्रयोजन घूमना/घुमाना अनर्थदण्ड कहलाता है।
- अनर्थों से बचने से रत्नत्रय धर्म पुष्ट होता है।
- मधु (शहद) की एक बूंद खाने से सात गाँव जलाने के बराबर दोष लगता है। इसलिए इस अनर्थ से बचना चाहिए।
- अनर्थदण्ड से श्रावकों को पहले बचना चाहिए।
- जो अनर्थ से डरता है, वह विकास कर सकता है। अनर्थ से डरने वाला हमेशा सावधान रहता है।
- जिससे संसारी प्राणी का वध हो, ऐसे शस्त्रादि का दान नहीं करना चाहिए। बुद्धि को बिगाड़ने वाले सारे पदार्थ हिंसा दान में आते हैं।
- पहले दूध का दान होता था, आज चाय का, यह पाउच संस्कृति है, दरिद्रता का प्रतीक है।
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