अभिमान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- अभिमान के साथ जो पुरुषार्थ करता है, उसे धिक्कार हो, अभिमान अज्ञानी को ही होता है।
- अपने अंदर झाँककर देखो, शांति मिलेगी, वरन् इस पर्याय की एक उम्र होती है।
- अहित की सामग्री के साथ जिसने अनुबंध कर लिया है, उसे क्लेश के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा।
- आज का युग अजीव तत्व की खोज में लगा हुआ है और जीव तत्व को भूल ही गया है।
- जब तक अर्थ(धन)है, तब तक ही उसे सम्मान मिलता है। इस पर अभिमान मत करो।
- शरीर तो नश्वर है वह छूटेगा ही, यह उसका स्वभाव है, इसलिए उसे अमर बनाने का प्रयास मत करो।
- संसार में मात्र मृत्यु (काल) ही विजेता है, इससे कोई किसी की रक्षा नहीं कर सकता, मृत्युंजयी बनने वाला ही अपनी रक्षा कर सकता है।
- वृक्ष से छूटा (टूटा) फल जन्म है और नीचे जमीन पर गिरा मरण है, यहाँ सदा स्थिर रहने वाला कोई नहीं है, शरीर में रहने का यह जीव आदी हो गया है इसलिए शरीर को छोड़ना नहीं चाहता, लेकिन सम्यकद्रष्टि सोचता है कि मैं शरीरातीत कब होऊँगा।
- अनुभव ही काम आने वाला है, जीवन में। मात्र किताबी ज्ञान कुछ उपलब्धि नहीं करा सकता है।
- शरीर बदमाश है, अपने आपको जीव के रूप में दर्शाता है।
- अलोकाकाश में तीन लोक बहुत छोटा दिखता है, आकाश के तारे के समान, लेकिन केवलज्ञान रूपी आकाश में अनंत लोकाकाश भी तारे की भाँति दिखाई देता है, फिर भी केवलज्ञानी अभिमान नहीं करते और यदि हम इस क्षयोपशम ज्ञान पर अभिमान करते हैं तो हँसी के पात्र हैं।
- ठसका क्या है ? भोजन करते समय बोलने से भोजन जिस दिशा में नहीं जाना चाहिए उस दिशा में चला जाता है तो ठसका लग जाता है, ठीक वैसे ही हम मोक्षमार्ग की दिशा से विपरीत गये तो ठसका लगेगा ही।
- आवागमन कम करने से साधना में निखार आता है।
- हमारे गुणों का महत्व, मान कषाय में तृणवत् होने पर ही बढ़ता है।
- शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ भगवान् तीन-तीन पद के धारी थे, उन्होंने कभी अभिमान नहीं किया, इसलिए तीन लोक के नाथ बन गये।
- सम्यकदर्शन मद के कारण कभी भी नष्ट हो सकता है, इसलिए हमें अपने आपको मान कषाय से बचाये रखना चाहिए।
- मान कषाय का अनुभाग सबसे ज्यादा पञ्चेन्द्रिय संज्ञी के ही पड़ता है।
- तप, ज्ञान रूपी वृक्ष मानादि कषायों के कारण सूखने लगते हैं, इसलिए संयमी को हमेशा मानादि कषायों से सावधान रहना चाहिए।
- त्यागी वस्तु याद है तो समझे कुछ छोड़ा ही नहीं वह अभी भी दिमाग में है।
- जिसमें अभिमान का पुट हो ऐसा त्याग, त्याग नहीं माना जाता।
- अभिमान करने से पुण्य भी पतला होने लगता है, इसलिए अभिमान नहीं करना चाहिए।
- मान की भूख को छोड़ना महान् व्रत है। अपमान का अर्थ है, अपना नहीं अपनी मान कषाय का अपमान हो रहा है, इसे सहन करना भी महान् तपस्या है, इसमें मान कषाय का ही अभाव हो रहा है, अपना न मान होता है। न अपमान होता है, अपन तो ज्ञाता, दृष्टा आतमराम है। यह श्रद्धान होना बड़ा महत्वपूर्ण है, जिसको यह श्रद्धान आ गया उसे समझलो मोक्षमार्ग मिल गया।
- जाति का मद करने से सामाजिक व्यवस्था भी बिगड़ जाती है और सम्यकदर्शन में दोष भी लगता है।
- यह जाति समाज व्यवस्था के लिए है, सम्यकद्रष्टि धर्म में इसका आग्रह नहीं करता।
- जाति कुलादि देहाश्रित व्यवस्था है, जहाँ जाति का आग्रह होने लगता है, वहाँ पर रत्नत्रय धर्म गौण होने लगता है।
- लघु बनना सीख लो, क्योंकि लघु बने बिना विराटता का अनुभव नहीं किया जा सकता।
- जो मान/अपमान में रुष्ट-पुष्ट नहीं होते उन्हें नमन करो।
- मान पंचेन्द्रियों के मालिक मन का विषय है।
- हमारा ज्ञान बीज की छाया के समान है, जिसमें नीचे चींटी तक नहीं बैठ सकती और मेंवलज्ञानी का ज्ञान वटवृक्ष की छाया के समान है।
- स्वभाव में अभिमान नहीं होता, विभाव में ही अभिमान के अंकुर पैदा होते हैं, सम्यकद्रष्टि इन अंकुरों को सम्यकज्ञान की तर्जनी से उखाड़ देता है।
- दूसरे के साथ अपनी तुलना करने से स्पर्धा के भाव उत्पन्न होते हैं, जो कि मान की ओर ले जाने वाली यात्रा है।
- मान को छोड़ने से दुनिया का सम्मान उनके चरणों में आ जाता है, भगवान् के चरणों में दुनिया झुकती है, सबसे ज्यादा सम्मान उसे मिलता है, जिसके पास मान नाम मात्र भी नहीं है।
- क्षमा, मार्दव आदि धर्म के कारण तप, ज्ञान के वृक्ष वृद्धि को प्राप्त होते हैं।
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