आत्मतत्त्व विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- जब तक आत्मा से कर्म नहीं छूटते तब तक वह देखने योग्य, अनुभवगम्य नहीं बन पाती।
- जैसी भावना शरीर के प्रति है वैसी ही आत्मा के प्रति हो जावे तो मनोभावना पूर्ण हो जावेगी।
- हमेशा हमारी दृष्टि वस्तुतत्व को पकड़ने वाली होनी चाहिए।
- आत्मतत्व की अनुभूति के लिए शब्दोच्चारण की आवश्यकता नहीं है।
- स्वरूप समझ लेने से अभिमान और दीनता समाप्त हो जाती है।
- आत्मा का शुद्ध स्वरूप मुनि अर्हंत भगवान् भी नहीं हैं, सही शुद्ध स्वरूप तो सिद्ध भगवान् हैं।
- जो दिख रहा है यह आत्मा का स्वरूप नहीं है। मैं दिखता नहीं हूँ, देखने वाला आत्मा हूँ।
- परिस्थिति नहीं बल्कि वस्तुस्थिति देखना चाहिए।
- स्वरूप से वंचित होते हैं तभी हम कषाय करते हैं।
- स्वरूप की ओर दृष्टिपात करने से विराटता दिखायी देती है।
- उस आत्मतत्व के बारे में चिंतन करो, जिसमें हर्ष-विषाद नहीं होता जो कभी बिछुड़ता नहीं है।
- हम सभी अंधे हैं, आत्मतत्व के बारे में, वह इन चर्म-चक्षुओं से दिखाई नहीं देता।
- शरीर से कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है। अंदर की ओर, आत्मतत्व की ओर देखने से कुछ मिल सकता है।
- विराट स्वरूप सभी में विद्यमान है मात्र अंतस् की आँखें खोलने की आवश्यकता है।
- सुख, शांति स्वभाव की ओर आने से ही प्राप्त होगी, दुनियाँ को जानने की ललक छोड़ दो।
- स्वयं की चिकित्सा करने वाला ही सही डॉक्टर माना जाता है।
- अध्यात्म वाले किसी कंडीशन को नहीं स्वीकारते वह तो आत्माश्रित रहते हैं। अध्यात्म वही है कि जड़ वस्तु के प्रति मोह कम हो जावे।
- जिसे आत्मा की सम्पदा का ज्ञान हो जाता है, वह बाह्य सम्पदा को धूल के समान समझ कर छोड़ देता है।
- यह आत्मा अनंत शक्ति का धारक है, यह एक सूत्र जीवन में ग्रहण कर लो।
- राग के उजाले में राग की लौ में यह आत्मा रूपी पतंगा जल रहा है। यह संसारी प्राणी पतंगा की भांति भोगों के लिए अपनी आत्मा की आहूति देता रहता है। पतंगा बार-बार उसमें झुलस जाता है। मरण सम्मुख है फिर भी अगले भव की नहीं सोचता है।
- ज्ञान, दर्शन, जानना, देखना ही मात्र आत्मा का काम है, इससे हटकर और कोई काम नहीं।
- सही जीवन वही है जो देहातीत होता है।
- अपने संवेदन के लिए अपने ही आत्म घर की ओर लौटना होता है।
- तत्व दृष्टि हमेशा-हमेशा गंभीर हुआ करती है, इससे सारे तूफान शान्त हो जाते हैं, स्थिर दृष्टि वाला पैर लड़खड़ाने पर भी कभी गिरता नहीं है।
- तत्व चिंतन से कभी भी प्रमाद पास नहीं आता।
- स्व को पहचानना कठिन होता है, क्योंकि वह चर्म-चक्षुओं से दिखाई नहीं देता। स्व की पहचान से जो दिख रहा है, उससे आकर्षण समाप्त होता है और स्व तत्व मिल जाता है।
- श्रद्धान के साथ चेतन को जागृत करना होगा, क्योंकि चेतन की धारा भीतर से फूटती है बाहर से नहीं।
- जिसका हमें संवेदन होता है, वही अपना है बाकी सब सपना है।
- स्व के संवेदन के समय शारीरिक, मानसिक वेदना कम हो जाती है।
- चेतना की विराटता के बारे में जिसे संवेदन होने लगता है उसे और कुछ अपेक्षा नहीं रहती।
- लौह के साथ जैसे अग्नि की पिटाई हो जाती है, वैसे ही इस देह की सौबत में आत्मा की पिटाई हो जाती है। शरीर और आत्मा का अभेद सम्बन्ध हल्दी चूना जैसा है।
- मुनिराज आत्मा की बात ही नहीं करते बल्कि आत्मा से बात भी करते हैं।
- लौटने का नाम अध्यात्म है, भागने का नाम ज्ञान है।
- ज्ञान के साथ इच्छा जुड़ी है। जानने का नाम ज्ञान नहीं बल्कि विशेष जानने का नाम ज्ञान है।
- अध्यात्म हृदय का काम है, दर्शन मस्तिष्क का कार्य है।
- अध्यात्म में जीने का काम होता है और दर्शन में मात्र देखने का काम होता है।
- अध्यात्म में निकट से निकट का संवेदन होता है, जबकि दर्शन में मात्र बाह्य जड़ वस्तुओं में घूमने की बात होती है। दर्शन में स्वाद नहीं आता वह तो मात्र LABEL जैसा है।
- जिनवाणी का सार शुद्धात्म तत्व है। ज्ञान प्राप्त करने के बाद रागद्वेष से युक्त आत्म तत्व को विभक्त कीजिये।
- मोह को कम करते जाओ भीतर आत्म तत्व प्राप्त हो जावेगा।
- संसार में सबसे महत्वपूर्ण तो आत्म श्रद्धान है इसी में आनंद का अनुभव होता है।
- आप अपने को अपने आईने में देख लो। अपने श्रद्धान के लिए किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं क्योंकि आत्मा संवेद्य भी है एवं संवेदक भी है।
- स्व को पहचानने वाला अपना विकास कर लेता है।
- अध्यात्म में सहानुभूति की नहीं बल्कि आत्मानुभूति की बात होती है।
- मोक्षमार्ग में आत्म विश्वास महत्वपूर्ण है, इसी के आधार पर अंक मिलते हैं।
- आत्मा के गुणधर्म अलौकिक हैं, अतुलनीय हैं, जिससे हम अनंतकाल से वंचित रहे हैं।
- राम नाम सत्य होने से पूर्व आत्मतत्व की बात सोचो।
- अध्यात्मनिष्ठ जीवन जीने से ही भारत सभी राष्ट्रों का गुरु माना जाता है। आज अध्यात्म इसलिए भूलते जा रहे हैं कि पश्चिमी हवा की ओर बढ़ रहे हैं।
- सारी समस्याओं का समाधान है, अपने आप का बोध होना।
- आत्मा से प्राप्त आनंद का स्वाद लेने वाला कर्मोदय जनित सुख-दुख का स्वाद नहीं लेता।