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प्रथम धारा मूल संस्कार विधि : जबलपुर 22 सितंबर 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • उपसर्ग परीषह, कर्म निर्जरा

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    उपसर्ग परीषह, कर्म निर्जरा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. उपसर्ग की अवधि में निश्चितरूप से असंख्यात गुणी निर्जरा होती है उस निर्जरा से बचना नहीं चाहिए।
    2. जो बाईस परीषह हैं उन बाईस परीषहों का सिर्फ आना कहा है ये आयेंगे और उपसर्ग आ जाते हैं तो उपसर्गों में विशेषरूप से समय दे देना चाहिए।
    3. अंडरड्यूटी जो होती है उसको पूर्ण करने के बाद ओवरड्यूटी से असंख्यातगुणी निर्जरा होती है।
    4. उस मुनि की बहुत निर्जरा होती है जो दूसरे के द्वारा किए गये अपमान को सहन करता है।
    5. मुनि के लिए उपसर्ग परीषह सहन करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। जैसे मिलिट्री युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहती है।
    6. परीषह तथा उपसर्ग पूर्वकृत पाप का फल है।इनको समता पूर्वक सहन करने से कर्म निर्जरा होती है।
    7. परीषहों और उपसर्गों के आने पर जो मुनि ऐसा मानता है कि मैं पूर्व के ऋण को चुका रहा हूँ उस मुनि की बहुत निर्जरा होती है।
    8. मान कर्म का उदय चल रहा है, उदीरणा चल रही है, यदि मैं इसमें समता रख लेता हूँ तो मेरी असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा हो गई और यदि मैं मान-सम्मान के लिए प्रयासरत हो जाऊँगा तो जितना कर्म निकला उससे लाख गुना और कर्मबंध हो गया ये ध्यान रखना।
    9. परीषह उपसर्ग जब तक नहीं तब तक मोक्षमार्ग की पृष्ठ भूमि प्रारम्भ नहीं होती।
    10. केन्द्र में उद्देश्य क्या है इसके माध्यम से ही कर्मों की निर्जरा होती है।
    11. वीतरागता या सरागता क्या केन्द्र बनाया है उसके अनुसार निर्जरा होगी।
    12. कर्मों का उदय आदि एक नाटक मंच की तरह अपना-अपना फल देकर चले जाते हैं।
    13. जो निर्विकल्प रहता है कोई विकल्प नहीं रखता इस कारण से कर्म की निर्जरा होती है, हो रही है ना कि श्रुतज्ञान के माध्यम से हो रही है।
    14. निर्विकल्प होने के लिए विकल्पों को तोड़ो यह कहा है, विकल्प तोड़ने से मोह कम हो जाता है समाप्त हो जाता है और क्षीणमोह हो जाता है।

    Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव


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