निमित्त उपादान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- निमित्त भले ही जोरदार हो पर उपादान जोरदार नहीं तो समझो कुछ नहीं। सभी निमित्त जोरदार ही हो ऐसा नहीं।
- तीर्थंकर ने जिस तिथि में दीक्षा ली उसी में अन्य राजाओं ने दीक्षा ली, तिथि तो पावरफुल है देखो तो सही लेकिन उसमें कोई सफल हो गया कोई विफल। किसी दूसरे की कुण्डली तिथि अपने काम में नहीं आती। अपने उपादान की ओर ध्यान दो, ये सब बाह्य सहयोगी हैं।
- जो व्यक्ति निमित्त में आरोप लगायेगा उसका मोक्षमार्ग डगमगायेगा। जितने हम निमित्त की ओर टूटेंगे उतना ही संक्लेश परिणाम होगा।
- निमित्त की ओर ज्यादा ध्यान नहीं देना है क्योंकि जब असाता का उदय होता है तब जो हमारे द्वेषी हैं वो ही निमित्त बनते हैं, मित्र नहीं। यदि मित्र निमित्त बने तो असाता का उदय भी नहीं रहेगा।
- समवसरण में देव जाते हैं लेकिन उनके (प्रभु के) चरणों में रहने पर भी देवों को क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता। उनके पास उपादान की कमी है इसलिए नहीं होता जिसके पास जितनी पात्रता है वह उतना ही पाता है। अधिक नहीं।
- दूसरों की कोई गलती नहीं है अपने कर्म पर जो विचार करता है उसी का नाम त्यागी है। निमित्त को देखने से कषाय जागृत हो जाती है इधर उधर न देखकर अपनी गलती देखो। सीता को देखो गृहस्थ में रहकर भी उसने कभी किसी को दोष नहीं दिया।
- सीता का पुरुषार्थ देखो कि रावण को भी दोषी नहीं ठहराया, राम को भी नहीं। वह तो ये कहती थी कि मेरे कारण राम को दु:खी होना पड़ा।
- निमित्ताधीन नहीं स्वाधीन बनो स्व के अधीन। अन्तर्मुखी होना चाहिए। निमित्ताधीन दृष्टि नहीं रखना चाहिए।
- जो व्यक्ति निमित्त पाकर भी अपने उपादान को जागृत नहीं करता वह अभी निमित्त-उपादान के वास्तविक ज्ञान से विमुख है।
- बाहरी निमित्त को भुला करके वास्तविक निमित्त जो हमारा कर्म है उसकी ओर आना ही एक मात्र शांति का रास्ता है। पल-पल हमें उसी का फल मिलता रहता है।
- निमित्त में कार्य नहीं हुआ करता, कार्य तो उपादान में ही होता है लेकिन निमित्त के बिना उपादान का कार्य रूप परिणाम भी न हुआ और न कभी होगा।
- दीपक में यदि तेल भर दिया पर बत्ती सारी जल गई है अथवा बत्ती ठीक है पर तेल छानकर नहीं भरा है, तब भी बत्ती नहीं जलेगी। अत: अंतरंग तथा बहिरंग निमित्त कारणों के होने पर ही कार्य पूरा होता है।
- निमित्त की ओर देखते हुए हमारी दृष्टि उपादान की ओर रहना चाहिए तब ही वह सामने वाला निमित्त हमारे उपादान को प्रेरणा का स्त्रोत हो सकता है।
- आदिनाथ भगवान मारीचि के पीछे नहीं पड़े समझाने का व्यर्थ पुरुषार्थ नहीं किया क्योंकि वो तो जानते थे इसलिए निमित्त में उलझने की कोशिश नहीं की थी।