"ॐ ह्रीं उत्तम तप धर्मांगाय नम:" दशलक्षण पर्व में हर जैनी का होता यही प्रयोजन कैसे करें अपनी आत्मा का शोधन ?
जिसके लिए
इन दिनों
वो करते हर प्रकार के प्रयत्न ....
समझकर अपना स्वरुप
क्यों हुए हम विद्रूप
जिसका करते वो
नित्यप्रति तत्व चिंतन
करके
अपने इष्ट के
गुणों का भक्तिपूर्वक स्मरण ....
जान जाते जब विकार
लगे हैं जो अनादि से
कर्मास्रव और बंध की संतति से
उनका कैसे करें विरेचन ?
पांचवें दिन से चलता उनका
इसी पर फोकस
यानि
लोभ का करके विरेचन
जो संस्कार पड़े थे अनादि के
जिनके कारण से झेल रहे थे वो
नित्य नए नए परिवर्तन
कैसे करें उन्हें नष्ट
उसी के लिए प्रथमतया
करते वो सीमा का निर्धारण
अर्थात करते संयम धारण
पेड़ से फल - फल से बीज
बीज से पेड़
कैसे तोड़े ये क्रम
इसी के लिए
लेते वो तप की शरण
जिस प्रकार बीज को जलाने पर
रुक जाती परंपरा उसकी
बनने का नया पेड़
उसी प्रकार
कर्मास्रव और बंध की
रोकने को संतति
करते वो तप ...
बारह प्रकार के बताये तप
जिनमे छह प्रकार के बहिरंग तप
और छह प्रकार के होते अंतरंग तप
अनशन-ऊनोदर-वृत्ति परिसंख्यान
रस त्याग- विविक्त शय्यासन-काय क्लेश
इनका लेते वो आलंबन बाह्य तप में
एवं
प्रयाश्चित-विनय-वैयावृत्त-स्वाध्याय
व्युत्सर्ग और ध्यान
इन्हे बताया अंतरंग तप
जो अपनी भूमिकानुसार करते
सभी श्रमण एवं गृहस्थ ....
जिस प्रकार सोने को तपाने से
किया जाता उसे शुद्ध
उसी प्रकार तपादि करके
आत्मा को किया जाता शुद्ध
होते जिससे विकार दूर
जिस प्रकार बीज को जलाने से
हो जाता परंपरा का विसर्जन
उसी प्रकार तप से
जलाया जाता
अनादि की परंम्परा को
कर के नष्ट
होती जिससे कर्मो की निर्जरा
एवं मन पर नियंत्रण का
जो बनता साधन ...
कहा भी है
"इच्छा निरोधस्तप:"
अर्थात इच्छा का निरोध करना
ही है तप
इसी से होता मन पर नियंत्रण
होता इसी से निग्रह
इन्द्रिय विषयों का - कषाय का
मुनिमहाराज करते इसका
पूर्णतया पालन
उसी से होता उनके
उत्तम तप धर्म प्रकट ....
आत्मा के शुद्धिकरण का
यही है प्रमुख साधन
जो होता प्रारम्भ
भोजन के त्याग से
निश्चित समय पर करना भोजन
रस परित्याग और
व्रत उपवास आदि से
बढ़ता जाता
जिससे तप का उद्यम ...
ध्यान आदि कर के
अंतरंग तप में
बढ़ाकर अपना रुझान
स्वाध्याय का करते अभ्यास
जिससे पुष्ट होता तत्व चिंतन
इसीलिए स्वाध्याय को
कहा "परम तप" ...
तन और मन को बुहारने से
होता आत्मा का शुद्धिकरण
जिससे होता
तन और मन की गुलामी का
निरस्तिकरण
बना रहता जिससे
आत्मोत्थान अग्रसर ...
अपनी भूमिकानुसार
अपनी शक्ति अनुसार
करे हम भी तप - निरंतर ...
प्रणाम !
उत्तम तप धर्म की जय हो !
अनिल जैन "राजधानी"
श्रुत संवर्धक
९.९.२०१९
प्रवचन पर्व 8 - उत्तम तप
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In विद्या वाणी
Posted
"ॐ ह्रीं उत्तम तप धर्मांगाय नम:"
दशलक्षण पर्व में
हर जैनी का
होता यही प्रयोजन
कैसे करें
अपनी आत्मा का शोधन ?
जिसके लिए
इन दिनों
वो करते हर प्रकार के प्रयत्न ....
समझकर अपना स्वरुप
क्यों हुए हम विद्रूप
जिसका करते वो
नित्यप्रति तत्व चिंतन
करके
अपने इष्ट के
गुणों का भक्तिपूर्वक स्मरण ....
जान जाते जब विकार
लगे हैं जो अनादि से
कर्मास्रव और बंध की संतति से
उनका कैसे करें विरेचन ?
पांचवें दिन से चलता उनका
इसी पर फोकस
यानि
लोभ का करके विरेचन
जो संस्कार पड़े थे अनादि के
जिनके कारण से झेल रहे थे वो
नित्य नए नए परिवर्तन
कैसे करें उन्हें नष्ट
उसी के लिए प्रथमतया
करते वो सीमा का निर्धारण
अर्थात करते संयम धारण
पेड़ से फल - फल से बीज
बीज से पेड़
कैसे तोड़े ये क्रम
इसी के लिए
लेते वो तप की शरण
जिस प्रकार बीज को जलाने पर
रुक जाती परंपरा उसकी
बनने का नया पेड़
उसी प्रकार
कर्मास्रव और बंध की
रोकने को संतति
करते वो तप ...
बारह प्रकार के बताये तप
जिनमे छह प्रकार के बहिरंग तप
और छह प्रकार के होते अंतरंग तप
अनशन-ऊनोदर-वृत्ति परिसंख्यान
रस त्याग- विविक्त शय्यासन-काय क्लेश
इनका लेते वो आलंबन बाह्य तप में
एवं
प्रयाश्चित-विनय-वैयावृत्त-स्वाध्याय
व्युत्सर्ग और ध्यान
इन्हे बताया अंतरंग तप
जो अपनी भूमिकानुसार करते
सभी श्रमण एवं गृहस्थ ....
जिस प्रकार सोने को तपाने से
किया जाता उसे शुद्ध
उसी प्रकार तपादि करके
आत्मा को किया जाता शुद्ध
होते जिससे विकार दूर
जिस प्रकार बीज को जलाने से
हो जाता परंपरा का विसर्जन
उसी प्रकार तप से
जलाया जाता
अनादि की परंम्परा को
कर के नष्ट
होती जिससे कर्मो की निर्जरा
एवं मन पर नियंत्रण का
जो बनता साधन ...
कहा भी है
"इच्छा निरोधस्तप:"
अर्थात इच्छा का निरोध करना
ही है तप
इसी से होता मन पर नियंत्रण
होता इसी से निग्रह
इन्द्रिय विषयों का - कषाय का
मुनिमहाराज करते इसका
पूर्णतया पालन
उसी से होता उनके
उत्तम तप धर्म प्रकट ....
आत्मा के शुद्धिकरण का
यही है प्रमुख साधन
जो होता प्रारम्भ
भोजन के त्याग से
निश्चित समय पर करना भोजन
रस परित्याग और
व्रत उपवास आदि से
बढ़ता जाता
जिससे तप का उद्यम ...
ध्यान आदि कर के
अंतरंग तप में
बढ़ाकर अपना रुझान
स्वाध्याय का करते अभ्यास
जिससे पुष्ट होता तत्व चिंतन
इसीलिए स्वाध्याय को
कहा "परम तप" ...
तन और मन को बुहारने से
होता आत्मा का शुद्धिकरण
जिससे होता
तन और मन की गुलामी का
निरस्तिकरण
बना रहता जिससे
आत्मोत्थान अग्रसर ...
अपनी भूमिकानुसार
अपनी शक्ति अनुसार
करे हम भी तप - निरंतर ...
प्रणाम !
उत्तम तप धर्म की जय हो !
अनिल जैन "राजधानी"
श्रुत संवर्धक
९.९.२०१९