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सरिता जैन

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काव्य Comments posted by सरिता जैन

  1. आचार्य  विद्या सागर महाराज जी के चरणों में त्रय बार नमोस्तु
    ' पर भाव त्याग तू बन शीघ्र दिगम्बर ' का भावार्थ

     

    हे निज आत्मन! तू पर-भाव में रमण करना बंद कर और शीघ्र ही दिगंबरत्व की ओर कदम बढा।

    दिगम्बर होने का अर्थ प्रायः वस्त्र- त्याग को ही माना जाता है,  पर यहाँ आचार्य श्री निज आत्मा के शरीर रूपी वस्त्र  को त्याग करने की,  शरीर के चोले से सदा के लिए मुक्त हो कर मोक्ष पद प्राप्त करने की भावना भाने की बात करते हैं ताकि आत्मा शाश्वत सुख को प्राप्त करके शीघ्र ही सिद्ध शिला पर निवास करे।

     

    सरलार्थ-

    बुद्धिमान लोग कहते हैं कि यह काया जड़ है अर्थात् पुद्गल है जो छेदन-छेदन-भेदन होने पर,  गलने-गलने-सड़ने पर नष्ट होने वाली है।

    जब हमारी आत्मा पर-भाव को छोड़ कर निज स्वभाव में विचरण करती है तो हमें यह ज्ञान हो जाता है कि मरण तो केवल देह का होता है।

    मैं ( आत्मा) अजर, अमर, अविनाशी हूँ। मेरा मरण कभी नहीं हो सकता।

    नष्ट होने वाली तो देह ही है जो हमारी नहीं है।

    यह देह तो एक अम्बर ( वस्त्र ) के समान है जो समय पाकर एक न एक दिन नष्ट होने वाला है।

    अतः हे निज आत्मन् ! तू शीघ्र ही अपनी आत्मा के शरीर रूपी वस्त्र को त्याग कर दिगम्बर हो जा तथा मोक्ष - पद के शाश्वत सुख को प्राप्त करके शीघ्र ही सिद्ध शिला पर निवास कर।

    राग आदि भाव ही आत्मा का शरीर से बंध के कारण हैं अतः ये भाव हेय हैं अर्थात् त्यागने योग्य हैं।

    अब तो इन भावों से मुक्त हो कर शुद्ध आत्मा ही उपादेय है अर्थात् प्राप्त करने योग्य है।

    केवल यही जानने योग्य है कि 
    ' यह शरीर मेरा नहीं है' । तभी हम शरीर के प्रति राग भाव को छोड़ सकेंगे।

    यदि हम ऐसा विचार करते हैं तो हम अपरिमित सुख को प्राप्त कर सकते हैं।

    दुःख ही कर्मो के आस्रव ( आने ) का मूल कारण है और संवर ( कर्मो के आस्रव को रोकना ) मोक्ष ( शिवपद ) को देने वाला है।

    अतः हे निज आत्मन् ! तू शीघ्र ही निज आत्मा के शरीर रूपी वस्त्र को त्याग कर दिगम्बर हो जा।

    हे आत्मन् ! तू अब तक अज्ञानता के कारण ही ' पर ' को सुख देने वाला मानता आया है और इसी अज्ञानता वश तुझे भयंकर दुःख उठाने पड़े हैं।

    ऐसी ऊँचाई किस काम की,  जहाँ से पतन आरम्भ हो जाए और ऐसे सुख को भी सुख नहीं कहा जा सकता जो दुःख,  क्लेश, चिंता व संताप का कारण बन जाए।
     
    हे जियरा ! एक बार तो अपने भीतर झांक कर देख जहाँ सुख व शांति का भण्डार भरा हुआ है।

    अतः हे  निज आत्मन् ! तू शीघ्र ही निज आत्मा के शरीर रूपी वस्त्र को त्याग कर दिगम्बर हो जा।

    स्व-पर का ज्ञान न होने के कारण ही तूने इतना समय व्यर्थ गँवा दिया।
     हा ! अज्ञानी बन कर सारा समय बिता दिया। 
    सुख तो मिल नहीं पाया बल्कि इसके विपरीत दुःख के बीज ही बोता रहा।

    ( आप जानते ही होंगे कि दुःख-सुख तो कर्मो के अधीन हैं पर हम दुःख में धैर्य नहीं रख पाते और अपने दुःखों में वृद्धि कर लेते हैं।

     जैसे यदि एक बीज को ज़मीन में बो दिया जाए तो कुछ समय बाद वह वृक्ष का रूप ले लेता है और उससे असंख्य बीज उत्पन्न हो जाते हैं।)

    आचार्य श्री विद्या सागर जी हमें यह बोध दे रहे हैं कि अपने ज्ञान चक्षुओं को खोल कर देखो। 

    मनुष्य जन्म के रूप में तुम्हें अनमोल समय प्राप्त हुआ है। 

    अपनी आत्मा में स्थिर हो जाओ और ज्ञानामृत का पान करो और ' पर ' को अपना मान कर अपने जीवन में विष न घोलो।

    शुभ-अशुभ भावों को त्याग कर शुद्ध उपयोग में लीन हो जाओ। 
    वही तीनों लोकों में सुन्दर है और शाश्वत सुख को देने वाला है।

    अतः हे निज आत्मन् ! तू शीघ्र ही निज आत्मा के शरीर रूपी वस्त्र को त्याग कर दिगम्बर हो जा तथा मोक्ष पद के शाश्वत सुख को प्राप्त कर के सिद्ध शिला पर वास कर।
    द्वारा- सरिता जैन,
    523, सैक्टर 13, हिसार (हरियाणा)

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