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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

Nitin-Jain

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  1. आचार्य श्री, बस यही तो नाम था। आचार्य श्री एक ही थे, एक ही रहेंगे। बचपन से हमने कभी पूरा नाम लिया ही नहीं। ऐसा लगता था कि अवज्ञा ना हो जाये। आज जो भी भावनाएँ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, उसका पूर्ण श्रेय मेरे माता पिता को जाता है। ना उन्होंने हमें आचार्य श्री के दर्शन कराए होते मढ़िया जी जबलपुर में और ना हमे इस अनासक्त योगी की चरण रज प्राप्त होती। वर्ष याद नहीं, एक धुँधली सी याद है जब मम्मी ने दूर से आचार्य श्री के दर्शन कराए थे। वो जो सानिध्य मिला, तो फिर गुरुवर की सेवा में लगे रहे। पपोरा जी, मुक्तागिरी, रामटेक, नेमावर, सिद्धवरकूट, बीना बारहा, भोपाल, विदिशा, सागर, ना जाने कहाँ कहाँ उनके सानिध्य का लाभ मिला। अमरकंटक में तो प्रथम प्रवेश के साथ, तक़रीबन ३ महीने चौका लगा था। उस समय प्रसाद सागर जी ने ब्रह्मचर्य व्रत भी नहीं लिया था। उनके साथ रोज़ ट्रेक्टर पर जाकर कुएँ से पानी भर कर लाना याद है। वो जो वात्सल्य और आशीष गुरुवर से मिला, उसका मैं वर्णन नहीं कर सकता। इतना कह सकता हूँ कि मेरे छोटे भाई को माता निकली थी, आचार्य श्री ने बहुत अच्छे से उसकी साता पूछते थे लगभग रोज़। हमारे घर से, तीन मौसी माताजी हैं, एक समाधिस्थ हैं और २ आचार्यश्री के संघ में ही हैं। मेरे माता पिता ने पाँच प्रतिमा का नियम भी उन्हीं से लिया। जीवंत परमेष्ठी का सानिध्य बिरलों को ही मिलता है। मैं उन बिरलों में से एक हूँ। और जीवन की भाग दौड़ में बिरला ही रह गया। ना जाने कब आचार्य श्री से इतनी दूरी बन गई कि अंतिम दर्शन कब किए थे ये याद नहीं है। मैं अभागा जिसे भाग्य ने मौक़ा दिया और मैंने वो गवां दिया। आचार्यश्री की समाधि की खबर आई, ऐसा लगा कि ये तो असंभव है। आचार्य श्री कहते थे एक दिन सबको जाना है, पर उनकी समाधि होगी ऐसा विचार कभी आया ही नहीं मन में। मेरे मन के विचार आपसे अलग नहीं होंगे और ना ही मेरा दुख किसी से कम ज़्यादा है। परंतु मैं अपनी क़िस्मत को कोस रहा हूँ कि वर्तमान के वर्धमान ने हाथ थामा और मैंने संसार के धक्के में उनका हाथ छोड़ दिया। वो मोह त्यागने का कहते रहे और हम आज उन्हीं के मोह में उनकी श्रद्धा में उन्हीं को याद कर रहे हैं। पर आप उनका प्रभाव देखो आज यहाँ उनके ना होने पर, मुझे ये लग रहा है कि जैसे वो कह रहे हों, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा, जिन को निज में धारण करो और अपना कल्याण करो। अपने भौतिक सुख के बाद भी, मेरा सर्वस्व चला गया, सर से छत चली गई ऐसा हर पल प्रतीत होता है। मैं अपनी भावनाओं को विराम देकर यही कामना करता हूँ कि आचार्य श्री अपने आठों कर्मों का नाश कर सिद्धशिला पर विराजित हों।
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