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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. *आचार्य श्री विद्यासागर के अंतिम तीन दिन की गाथा* सभी का मन सशंकित हो रहा था बहुत दिन से कहीं कुछ खो रहा था जुड़े सब हाथ ढीले पड़ गए थे पनीले नेत्र पीले पड़ गए थे तपस्या चरम तक आने लगी थी ये भौतिक चर्म कुम्हलाने लगी थी व्रतों पर नूर इतना चढ़ गया था कि तन का रंग फीका पड़ गया था हुई जर्जर तपस्यायुक्त काया तो यम सल्लेखना का व्रत उठाया किया आचार्य के पद से किनारा व्रती ने मृत्यु तक का मौन धारा सुना जिसने, वही थम-सा गया था गला सूखा, हलक जम-सा गया था ख़बर ये फैलती थी आग बनकर हृदय छलका सहज अनुराग बनकर श्रमण सब बढ़ चले विश्वास लेकर तपस्वी के दरस की आस लेकर दिगम्बर साधुओं की भीड़ उमड़ी गृहस्थों के हृदय में पीर उमड़ी व्रती अंतिम तपस्या कर रहा था अभागा तन विरह से डर रहा था हठी तप में जुटा था मौन साधे खड़ी थी मृत्यु दोनों हाथ बांधे धरा पर भाग्य जागा था मरण का उसे अवसर मिला गुरु के वरण का बिताए तीन दिन यूँ ही ठहर कर मगर फिर रात के तीजे पहर पर अचानक साँस की ज़ंजीर तोड़ी वियोगी ने ये नश्वर काय छोड़ी चले, त्रैलोक्य तक विस्तार करके गए ज्यों राम सरयू पार करके दिगम्बर साधना का बिंदु खोया व्रतों का चंद्रगिरि में इंदु खोया धरा से त्याग का प्रतिरूप लेकर चली हो सांझ जैसे धूप लेकर पिपासा से अमिय का कूप लेकर चली है मौत जग का भूप लेकर प्रजा जागी तो बस माटी बची थी प्रयोजन गौण, परिपाटी बची थी चिता में जल रहा दिनमान देखा सभी ने सूर्य का अवसान देखा धरा का धैर्य दूभर कर गया है धरा से स्वयं विद्याधर गया है ✍️चिराग़ जैन
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