बात उस समय की है जब आचार्यश्री का चातुर्मास गोममटगिरी इंदौर में हो रहा था। प्रतिभास्थली की दीदीयों का उज्जैन में ठहराया गया था। उनके देखभाल के लिए मैं कई बार जाया करता था। बहुत सी दीदीयों से मेरा अच्छा संपर्क हो गया था। उनका जब इंदौर दर्शन हेतु जाना हुआ तो मैं भी उनके साथ इंदौर चला गया। वहां मुझे पहली बार आचार्य श्री को आहार देने का मौका मिला। धन्य हो गया मैं मेरे भाव आसमान पर थे। दीदीयां वापस उज्जैन आ गई मैं वहीं रूक गया। मुनियों का सान्निध्य मिला तो और भाव जागे मैं आचार्य श्री से मिला और बोला भगवन अब मुझे भी आप ब्रह्मचर्य की दीक्षा दे दो। उन्होंने कहा पहले अपने माता व पिता जी को बुलाओ फिर बात करूंगा। मैं अब शांत नहीं रहा और मन बहुत विचलित हो गया कि अब कैसे यह सब होगा। फिर भी घर पर फोन किया और बोला कि आप लोग आ जाओ और आचार्यश्री से बात कर लो। सबके आने के बाद जब मैं उन्हें आचार्यश्री से मिलवाया तो उन्होंने कहा अभी परिवार को तुम्हारी जरूरत है पहले अपनी जिम्मेदारी निभाओ फिर आना। अब मुझे लगता है शायद उस समय मैं परिपक्व नहीं था। आज आचार्यश्री मोक्षमार्ग पर चले चले गए। लेकिन वो अब भी अपना अशीष हम पर बनाए हुए है।