Jump to content
मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता प्रारंभ ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • तेरा सो एक 3 - विरत्ति की ओर

       (1 review)

    "बाधाओं को सहन करने वाला, निरन्तर साधना करने वाला व्यक्ति ही अन्त में सफल होता हैं |” एक बार एक व्यक्ति मेरे पास आकर कहने लगे - ‘महाराज जी! कुछ कृपा कर दो, जिससे काम चलने लगे। क्या काम आप करना चाहते हैं? मैंने पूछा-यही चलना, फिरना, भोजनपान आदि। उन्होंने कहा- इन कामों में बाधा क्यों आती है? महाराज क्या कहूँ? मुझे दिखता नहीं है। कुछ तन्त्र-मन्त्र कर दो, जिससे दिखने लगे, उन्होंने कहा। मैंने पूछा-'क्या अवस्था है आपकी?” उत्तर मिला महाराज! ज्यादा नहीं पचासी की होगी।


    उन महानुभाव की बात सुनकर मुझे लगा कि मानव जब जर्जर शरीर हो जाता है, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं तब भी भोगोपभोग की आकांक्षा नहीं छोड़ना चाहता। इसीलिये नीतिकारों ने कहा है -


    यावत्स्वास्थ्यं शरीरस्य, यावच्चेन्द्रिय-सम्पदः ।

    तावद्युक्तं तपः कर्म वार्धक्ये केवलं श्रमः॥

    अर्थात् जब तक शरीर स्वस्थ है और इन्द्रियाँ अपना कार्य करने में समर्थ हैं, तब तक आत्मकल्याण के लिए कुछ कर लेना चाहिए, अन्यथा वृद्धावस्था आयेगी, शरीर निश्चत ही शिथिल होगा और इन्द्रियाँ भी शक्तिहीन होयेंगी, उस अवस्था में मात्र पश्चाताप ही शेष रह जायेगा।


    वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से शक्ति यदि प्राप्त हुई है, तो उसका सदुपयोग करना चाहिए। भोगोपभोग सामग्री के इकट्ठे करने में शक्ति को लगाना उसका दुरुपयोग करना है, संसार के अन्दर कोई अमर बनकर नहीं आया है। एक दिन सबको यथास्थान जाना है।


    विषय चाह दावानल दह्यो, मरत विलाप करत दुख सह्यो।

    भाग्यवश कभी देव भी हो गया, तो वहाँ विषयों की चाहरूपी दावानल में जलता रहा और अन्त में माला मुरझाने पर इस प्रकार का संक्लेश करता है कि उस काल में एकेन्द्रिय की भी आयु बाँधकर पृथ्वीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक में उत्पन्न हो जाता है।

     

    ‘तहतें चय थावर तन धर्यो, यो परिवर्तन पूरे कर्यो।'

    यह जीव कब-से परिवर्तन कर रहा है और कब तक करता जायेगा, इसका ठिकाना नहीं है। यह निश्चत समझिये देवों का आयु-बंध, भुज्यमान आयु के अन्तिम छह माह शेष रह जाने पर आठ अपकर्षों के माध्यम से होता है। इसलिए देव तो अन्तिम जीवन में सावधानी बरतने से संकट से बच सकते हैं, परन्तु कर्मभूमिज मनुष्य, तिर्यञ्च का आयु-बन्ध, भुज्यमान आयु के दो भाग निकलने पर प्रारम्भ होता है, जबकि इन मनुष्य-तिर्यच्चों को इस बात का ज्ञान नहीं है कि मेरी आयु कितनी है और उसका तृतीय अंश कब प्रारम्भ होने वाला है? इस दशा में तो उसे सदा सावधान ही रहना पड़ेगा अन्यथा असावधानी से खोटी आयु का बन्ध हो सकता है। सम्यग्दृष्टि विचार करता है कि जीवन क्षणभंगुर है, बिजली की कौंध के समान नश्वर है। पर, मिथ्यादृष्टि सोचता है कि अभी क्या हुआअभी-अभी तो आया हूँ, कुछ भोगोपभोग का भी मजा ले लेने दो। पर, वह यह सब सोचता ही रहता है, इधर जीवन की लीला समाप्त हो जाती है।


    हर एक व्यक्ति को धर्म-साधना के लिए अपना जीवन-क्रम निश्चत कर लेना चाहिए। इसके बिना वह लक्ष्यहीन हो भटकता ही रहता है। जो जीवन-क्रम निश्चत कर घर में कुछ साधना कर लेते हैं उन्हें आगे का मार्ग सरल हो जाता है। अभ्यास के बिना कार्य की सिद्धि होना सम्भव नहीं है। विद्यार्थी वर्षभर अभ्यास करता है, तब परीक्षा में उतीर्ण होता है। जिस छात्र ने कुछ अभ्यास किया नहीं, वह परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकता।


    दक्षिण में दशहरा का त्यौहार होता है, खूब उत्सव मनाते हैं, उस समय लोग आपस में सोना बाँटते हैं, यह सोना नहीं, एक वृक्ष के गोल-गोल पत्तों को वे सोना कहते हैं, उन्हीं का आदान-प्रदान करते हैं, गेहूँ भी घर में बोकर उगाते हैं। सात-आठ दिनों में गेहूँ के पौधे बड़े हो जाते हैं। पर, सूर्य की किरणों का प्रकाश न मिलने से पीले-पीले रहते हैं, जैसे कि टी. बी के मरीज। आपके प्रदेश में भी तो श्रावण-मास में कजलियाँ निकालते हैं, ली जैसी होती हैं वे पीली-पीली, अन्धकार में रहने से उनमें वृद्धि तो अधिक हो जाती है, परन्तु सर्दी-गर्मी सहन करने की क्षमता नहीं रहती, जो पौधे सूर्य-किरणों के प्रकाश में बोये जाते हैं वे हरे-भरे होते हैं और उनमें 'सर्दी-गर्मी सहन करने की क्षमता रहती है, फल-फूल भी उन्हीं में लगते हैं, पीली-पीली कजलियों में नहीं। अत: बाधाओं को सहन करने वाला, निरन्तर साधना करने वाला व्यक्ति ही अन्त में सफल होता है।


    विवेकी मनुष्य घर का परित्याग कर बाहर जाता है और अपनी क्षमता से सर्दी-गर्मी को सहता हुआ आत्म-कल्याण की ओर अग्रसर होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार घर में आग लगने पर कुंआ खुदवाने से कोई लाभ नहीं होता, उसी प्रकार वृद्धावस्था में धर्म का मार्ग अंगीकृत करने पर लाभ नहीं होता, धर्म तो शरीर की शक्ति रहते हुए कर लेना चाहिए, जिस प्रकार युवावस्था की कमाई को मनुष्य वृद्धावस्था में आराम से भोगता है, उसी प्रकार युवावस्था की धर्मसाधना का उपयोग वृद्धावस्था में करता है।
    कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है


    रतो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विराग-संपत्तो।

    एसो जिणो वदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज।॥

    ( समयसार—गाथा)

    अर्थात् रागी जीव कर्मों को बाँधता है, और विरागी जीव कर्मों को छोड़ता है, यह जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश है, इसीलिए कर्मों में रागी मत बनो। भव्य-जीव विरागी होकर सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर की स्थिति वाले मिथ्यात्व कर्म को अन्त: कोड़ा-कोड़ी सागर की स्थिति में ला देता है, इतना ही नहीं, उसे समाप्त कर सकता है, परन्तु अभव्य नहीं, अभव्य जीव को विशुद्धि-लब्धि नहीं होती, अर्थात् उस जाति की विशुद्धता में वह देशना से लाभ नहीं ले सकता, गुरुओं की देशना को सुन लेना ही देशना-लब्धि नहीं है। पर, उसके ग्रहण, धारण और अनुभव की शक्ति आ जाना देशना-लब्धि है।


    बहुत पहले गृहस्थावस्था की बात है, एक बार एक सज्जन आकर बोले-जरा, हमारे घर चलिए, एक भाई को बड़ी वेदना हो रही है उसे संबोध दीजिए, मैं चला गया, जाकर देखा कि उसकी हालत मरणासन्न है, अत: मैं 'णमोकार-मन्त्र' सुनाने लगा, वहीं खड़ा हुआ दूसरा व्यक्ति कहने लगा यह मर थोड़े ही रहा है-जो आप 'णमोकार-मन्त्र' सुना रहे हैं! मुझे लगा कि देखो ये रागी प्राणी धर्म-कर्म की बात तब सुनना चाहते हैं, जब उसमें सुनने-समझने की शक्ति भी शेष नहीं रह जाती, थोड़ी देर बाद उस व्यक्ति का प्राणहत हो गया, राम-नाम सत्य है, ही शेष रह गया।


    दीपक जब से जलना शुरू करता है, तभी से बुझने लगता है, जितना तेल समाप्त होता जाता है, उतना ही वह बुझता जाता है, जब बिल्कुल समाप्त हो जाता है, तब अन्धेरा ही शेष रह जाता है। इसी प्रकार, इस जीव का अनुवीचि मरण प्रत्येक समय हो रहा है, यह जीव नवीन शरीर के परमाणुओं को ग्रहण करने के पहले ही अपनी एक, दो अथवा तीन समय की आयु समाप्त कर चुकता है, तात्पर्य यह है कि जब मरण प्रति समय हो रहा है तो प्रति समय सावधानी बरतनी चाहिए।

     

    बिजली ऊपर चमकती है, उसे देखने से लाभ नहीं, किन्तु उसके प्रकाश में अपने पैरों के नीचे की भूमि को देख लेने में लाभ है, हम लोग किसी का उपदेश सुनते हैं, पर उस उपदेश को सुनकर अपने आप की ओर नहीं देखते, काम तो अपने आप को देखने से सिद्ध होगा, जो वस्तु जहाँ है वहीं उसकी खोज करनी चाहिए।


    एक बुढ़िया की सुई गुम गयी, उसे अन्धेरे में ढूँढ़ती देख किसी ने कहा-माँ! अंधेरे में क्या ढूँढ़ती हो, उजेले में ढूँढ़ो, वह जहाँ उजेला था वहाँ ढूँढ़ने लगी, दूसरा आदमी आया, आकर पूछता है माँ जी! क्या ढूँढ़ रही हो? बेटा! सुई ढूँढ़ रही हूँ, बुढ़िया ने कहा, कहाँ गुमी थी यह तो पता है? गुमी तो वहाँ थी पर ढूँढ़ यहाँ रही हूँ, एक भाई ने कहा-उजेले में ढूँढ़ो, तो यहाँ ढूँढ़ने लगी, दूसरे आदमी ने कहा—तो यहाँ ढूँढ़ने से थोड़े ही मिल जायेगी। बुढ़िया झुंझलाकर बोली-एक कहता है उजेले में ढूँढ़ो और एक कहता है औधेरे में ढूँढ़ो, किस-किस की बात मानूँ, उस आदमी ने समझाया कि जहाँ सुई गुमी है वहाँ उजेला लेकर ढूँढ़ो तो मिलेगी नहीं तो नहीं।


    यह तो एक दृष्टान्त रहा, परमार्थ यह है कि हम लोग भी तो धर्म को कहाँ ढूँढ़ते हैं? तीर्थ स्थानों में, ऋषियों के प्रवचनों में परन्तु धर्म तो हमारी आत्मा में है, उसकी उपलब्धि वहीं होगी। पर मन्दिर आदि को केवल उसका साधन बनाया जा सकता है। उदासीनाश्रम की बात एक दिन आयी, परन्तु आज कोई व्यक्ति-साधक उदासीन तो दिख नहीं रहा है, हाँ आश्रम ही जरूर उदासीन दिख रहा है, मात्र मकान बनाकर खड़ा कर देना उदासीनाश्रम नहीं है, आप लोगों में यदि उदासीनता आये तो उदासीनाश्रम अपने आप बन जायेगा, बोलो, है कोई आप लोगों में उदासीन बनने को तैयार? कोई नहीं!


    भोगोपभोग की लालसा को घर में भी घटाया जा सकता है। पर, घटाया तब जा सकता है जब उसका लक्ष्य बनाया जाये, क्योंकि लक्ष्य के बिना किसी भी कार्य में सफल होना सम्भव नहीं। अरे 'अणुव्रत' का धारण करना कोई कठिन नहीं है, लक्ष्य करो उस ओर तो अणुव्रत का पालन सरलता से हो सकता है, अणुव्रत का अर्थ होता है छोटा व्रत और महाव्रत का अर्थ होता है व्रत के पीछे लगना, महाव्रत और अणुव्रत में से जो शक्य हो उसे अवश्य प्राप्त करो और विरक्ति की ओर बढ़ने का प्रयास करो।


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    रतन लाल

      

    भोगोपभोग की लालसा को घर में भी घटाया जा सकता है। पर, घटाया तब जा सकता है जब उसका लक्ष्य बनाया जाये, क्योंकि लक्ष्य के बिना किसी भी कार्य में सफल होना सम्भव नहीं।

    • Like 1
    Link to review
    Share on other sites


×
×
  • Create New...