मनुष्य-जीवन आवश्यक कार्य करने के लिए मिला है अनावश्यक कार्यों में खोने के लिये नहीं। जो पाँच इन्द्रियों और मन के वश में नहीं है वह 'अवश' है और 'अवशी' के द्वारा किया गया कार्य 'आवश्यक' कहलाता है।
'आवश्यकापरिहाणि'- दो शब्दों से मिलकर बना है-'आवश्यक' और "अपरिहाणि" अर्थात् आवश्यक कार्यों को निर्दोष रूप से सम्पन्न करना । आवश्यक कार्यों को समयोचित करने के लिये बुद्धिमत्ता आवश्यक है। एक अपढ़ बहू एक घर में आ गई। पड़ोस में किसी के यहाँ मौत हो गयी थी। सास ने उसे वहाँ भेजा। सांत्वना देने के लिए। बहू गई और सांत्वना शाब्दिक देकर आ गई। रोई नहीं। सास ने कहा/समझाया कि वहाँ रोना आवश्यक था बहू। अचानक दूसरे ही दिन पड़ोस के एक अन्य घर में पुत्र का जन्म हुआ। सास ने बहू को भेजा और वहाँ पहुँचते ही बहू ने रोना शुरू कर दिया। घर लौटी तो सास के पूछने पर उसने सब कुछ कह दिया। सास ने बहू को फिर समझाया क्या करती हो बहू, वहाँ तो तुझे प्रसन्न होकर गीत गाना चाहिए था, अब आगे ध्यान रखना। फिर एक दिन की बात है वह बहु ऐसे घर में गयी जहाँ आग लग गयी थी। वहाँ जाकर उसने गीत गाये और प्रसन्नता व्यक्त की। आप जान रहे हैं उस अनपढ़ बहू के ये काम समयोचित नहीं थे। इसीलिए आप सब हँस रहे हैं उसकी बात सुनकर। किन्तु यदि आप अपने ऊपर ध्यान दो तो पाओगे कि आप सबका जीवन भी कितना अव्यवस्थित हो रहा है। महर्षि जन आपके क्रिया-कलापों को देखकर हँसते हैं क्योंकि आप के सभी कार्य अस्त व्यस्त हैं। आपको नहीं मालूम-कब, कहाँ कौन-सा कार्य करना है।
भगवान् वृषभनाथ को अन्तिम कुलकर माना गया है। उनके समय से ही भरत क्षेत्र में भोगभूमि का अन्त हुआ और कर्मभूमि का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने सारे समाज को तीन भागों में विभक्त कर छ: कार्यों में लगाया। यह आपको समझना है कि भोगभूमि नहीं है यहाँ। कर्मभूमि है। पुरुषार्थ आपको अनिवार्य रूप से करना है। भोग आपको मिलने वाले नहीं है। हमने ये सारी बातें रटी हुई हैं। समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय आदि सभी खोल-खोल कर हमने रट डाले हैं। किन्तु उनमें कही गयी शिक्षाओं के अनुरूप हमारे कार्य नहीं बन पाये। वृषभनाथ भगवान् ने युग के आरम्भ में लोगों को अन्न पैदा करना, अन्न खाना सिखाया और बाद में मोक्षमार्ग की साधना की भी प्ररूपणा की है। आप केवल खाना खाने तक सीमित रह गये। पर लौकिक शिक्षा को हृदयंगम किया ही नहीं।
आप विवेक और बुद्धि के अभाव में आवश्यक कार्यों को तो करते नहीं, वासना के दास बने हुए हैं। 'आवश्यक' शब्द की निष्पत्ति की चर्चा करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है, जिसने इन्द्रियों के दासपने को अंगीकार कर लिया, वह वशी है। जो मन और पाँच इन्द्रियों के वश में नहीं है वह अवशी है। अवशी केवल आवश्यक कार्य ही करेगा, अनावश्यक कार्य नहीं करेगा। आवश्यक कार्य कौन-सा? करने योग्य कार्य ही आवश्यक कार्य है और मनुष्य जीवन आवश्यक कार्य करने के लिये मिला है। अनावश्यक कार्यों में खोने के लिये नहीं मिला। योगसाधन के लिये जीवन मिला है भोग साधन के लिए नहीं। ध्यान रखें, त्रस पर्याय सीमित है और इसी में आवश्यक कार्य किये जा सकते हैं। कुल दो हजार सागर का समय मिला है, इसके उपरान्त पुनः निगोद में लौट कर जाना ही पड़ेगा। इन दो हजार सागर में मनुष्य के केवल अड़तालीस भव मिलते हैं। मनुष्य के इन अड़तालीस भवों में भी सोलह बार स्त्री पर्याय के, चौबीस नपुंसक के भव और शेष आठ पुरुष पर्याय के हैं। इस प्रकार अगर देखा जाये तो पूरा विकास करने के लिये आठ ही भव मिले हैं। यदि ये भव यूँ ही चले गये तो पछताना पड़ेगा। ‘अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत'। डूबने के उपरान्त किसी को बचाया नहीं जा सकता ।
मणि को समुद्र में फेंक देने के उपरान्त उसे पाया नहीं जा सकता। गाड़ी छूटने के समय आप यात्री से कहें - "केन्टीन में चली, थोड़ा विश्राम कर लो।" तब क्या वह आपकी बात मानेगा ? कभी नहीं मानेगा। वह जानता है कि गाड़ी छूटने का मतलब परेशानी कई घण्टों की। ऐसा ही ये मनुष्य जीवन है।
अकबर और बीरबल का एक उदाहरण मुझे याद आता है। एक व्यक्ति आया और उसने प्रश्न किया राज दरबार में- सताईस में से दस निकाल दिए जाएँ तो कितने बचेंगे ? किन्तु बीरबल का उत्तर बड़ा अजीब था। उसने कहा सताईस में से दस निकल जाने पर कुछ नहीं बचेगा। सभी भौचक्के रह गये। यह क्या उत्तर है ? कौन-सी स्कूल में पढ़ा है यह ? इतना भी ज्ञान नहीं। तब बीरबल ने समझाया- सताईस नक्षत्र होते हैं उनमें से दस नक्षत्र ऐसे हैं जिनमें वर्षा होती है यदि वे नक्षत्र निकाल दिये जायें तो वर्षा के अभाव में फसल नहीं होगी। अन्न का एक दाना भी घर में नहीं आ पायेगा। अकाल की स्थिति हो जायेगी और सभी भूखे मर जाएँगे। कुछ भी शेष नहीं रहेगा। इसी प्रकार त्रस पर्याय से मनुष्य-भव निकाल दो फिर कल्याण का अवसर कहीं नहीं मिलेगा।
भोग-भूमि में भोग भोगने होंगे। उसके बिना निस्तार नहीं है। उत्तम भोगभूमि में तीन पल्य तक रहना होगा, मध्यम भोगभूमि में दो पल्य और जघन्य भोग-भूमि में एक पल्य की उम्र बिताना होगी। उत्तम भोगभूमि में तीन दिन के उपरान्त चौथे दिन एक भुक्ति अनिवार्य है। मध्यम और जघन्य भोगभूमि में क्रमश: दो दिन और एक दिन के उपरान्त एक भुक्ति करनी ही होगी। इसे कोई टाल नहीं सकता। भोग भोगने ही पड़ेंगे किन्तु कर्मभूमि में भोगों के पीछे दौड़ना ही व्यर्थ है। यहाँ तो पुरुषार्थ द्वारा, संयम द्वारा अपनी स्वतन्त्र सत्ता को पाया जा सकता है। यहाँ खाना खाओ तो जागृति के लिये, योग-साधना के लिए, सोने के लिए नहीं। यह शरीर योग साधना के लिए माध्यम है। इसके माध्यम से ही अलौकिक आनन्द में प्रवेश किया जा सकता है। सभी तीर्थकरों ने यही किया। उन्होंने मात्र सिखाया ही नहीं, करके भी दिखाया। हमें अवसर को पहचानना चाहिए वरना पछताना पड़ेगा, वैसे कई बार पछताये भी हैं परन्तु स्मरण नहीं। श्वान की टेढ़ी पूंछ के समान जो कि कभी सीधी नहीं हो पायी, हमारी भी मनोदशा है। उठो, जाग्रत हो, अनादि के कुसंस्कारों को तिरस्कृत करके निगोद की यात्रा से बचो, जहाँ
'एक श्वास में आठ दस बार, जन्मयो मरयो भरयो दुख भार'
समय के साथ चलकर यह आवश्यक कार्य निर्दोष पूर्वक करना चाहिए।