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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 7 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 8 - विचार करो

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    जब हम किसी भी बड़े व्यक्ति के पास जाएँगे तब उनके दर्शन के पूर्व कुछ भेंट करेंगे। हालांकि वे भूखे या भिखारी नहीं होते हैं, पर यह एक सम्मान का, उदारता का प्रतीक है। इसी प्रकार जब तीन लोक के नाथ के पास जायेंगे, नमस्कार करेंगे, तब क्या भेंट करेंगे ? कुछ न कुछ तो देंगे ही। हालांकि वो माँगते भी नहीं है, पर इस प्रकार हम उनका मान-सम्मान करते हैं, जबकि वे मान-सम्मान भी नहीं चाहते हैं। वे तो राग-द्वेषादि से दूर हैं। भेंट में अगर हम और कुछ नहीं तो कम से कम रागद्वेषादि जो हानिकारक है उन्हें ही उनके चरणों में विसर्जित कर देना चाहिए। आत्मा के अहितकारी विषय और कषाय है। अत: सर्व प्रथम महावीर भगवान् के सम्मुख थोड़ा-थोड़ा विषय कषाय को ही त्याग करना चाहिए। अनादि काल से इस जीव ने इन विषय कषायों को अपना मित्र मान रखा है, पर इनसे शान्ति नहीं मिल सकती। अपने भावों को भगवान् तक पहुँचाने के लिए हमें त्यागी के सम्मुख त्यागी बन कर ही जाना चाहिए। चावल लौंग आदि हम जब भगवान् के सामने चढ़ाते हैं, यह भी एक तरह से विषय को त्याग करना है। राग व कषाय, विषय वासना की वृद्धि हो रही हो तो पूजा सार्थक नहीं कहलाती है। जहाँ राग-द्वेष, विषय-कषाय का त्याग होता है वहाँ ही यह प्राणी महावीर भगवान के सन्निकट होता है। भगवान् महावीर का नाम लेने से हम उनके सन्निकट नहीं पहुँच पाएँगे, बल्कि जिस त्याग को उन्होंने अपनाया है उसको धारण करने पर ही हम उनके सन्निकट पहुँच सकते हैं। दुनियाँ का यह प्राणी मृत्यु से बहुत भयभीत होता है, फिर भी उस मृत्यु से मुक्ति नहीं है। क्योंकि जो जीना चाहता है वहाँ मृत्यु जरूर खड़ी होती है। उस चाहरूपी दाह से हमें मुक्त रहना है, तभी मृत्यु से मुक्ति मिल सकती है। आज दुनियाँ में धनवान से धनवान, करोड़पति-अरबपति आदि सबको मृत्यु का भय लगा हुआ है। और जो व्यक्ति डरता है तथा जो डराता है उसे मुक्ति (आनन्द) का अनुभव नहीं हो सकता है। इसे भय संज्ञा कहते हैं, यह सबसे ज्यादा खतरनाक है। आहार और काम संज्ञा से तो कुछ समय के लिए मुक्ति मिल सकती है। पर भय संज्ञा और परिग्रह संज्ञा २४ घंटे लगी रहती है। जो मुक्ति की इच्छा रखता है, उसे इन संज्ञाओं का त्याग करना पड़ेगा।

     

    शरीर के पीछे यह जीव विषय-कषायों को अपनाता है, खुद भी निभीक बनें और दूसरों को भी निभक बनावें, यही महोत्सव है। आप चाहते हैं, हर्ष उल्लास का वातावरण, सुख का संवेदन। हर प्राणी मात्र इसी कामना से परिश्रम करता है, पर जब तक वह डरता व डराता है, तब तक यह चीजें असंभव हैं।

     

    विश्वशांति तभी सम्भव है, जब हम अहिंसा को अपनाएँगे। दूसरे को डर दिखाने, पीड़ा पहुँचाने तथा हिंसा करने के लिए भी शस्त्र रखना पड़ेगा, और शस्त्रधारी को भी डर रहेगा कि बढ़िया शस्त्र बनाकर कोई उसको हानि न पहुँचा दे। अत: उसे भी भय लगा हुआ है। हमने आज तक यह देखा कि दूसरा अगर करे तो हम भी करें। पहल किसी को न किसी को तो करनी पड़ेगी। हमें भगवान् के दरबार में कुछ न कुछ तो विमोचन करना है। आज आपका जीवन भौतिक चकाचौंध की ओर झुक गया। मोक्ष मार्ग की ओर आरूढ़ हो जाने पर ही मोक्ष प्राप्त होगा। लोग प्रथम गुणस्थान पर रहते हैं पर बातें १४वें गुणस्थान की करते हैं। जब हम महावीर भगवान् के बताये रास्ते पर चलते हैं, तो अगर मन्दिर आकर उनके दर्शन न भी कर सकें तो कोई बात नहीं है।

     

    अध्ययन वही कर सकता है जो अध्ययन के समय तो कम से कम राग द्वेष त्याग कर दे। तब ही मोक्ष मार्ग की पृष्ठ भूमि प्रारम्भ हो जाती है। हमें विषय कषायों को गौण करना है, तब ही हम जान पायेंगे कि महावीर भगवान् क्या हैं ? मोक्षमार्ग क्या है ?

     

    हम अभी तक उपासक नहीं बन पा रहे हैं, इसका कारण हम स्वयं भयभीत हैं और दूसरों को भयभीत कर रहे हैं। हम मृत्यु से डर रहे हैं और डरा रहे हैं। हम मृत्यु से डरते हुए भी मृत्यु पर विजय प्राप्त नहीं कर रहे हैं। आत्मा को कष्ट व दुख हो रहा है, वह उल्टी परिणति के कारण हो रहा है, और वह उल्टी परिणति क्रोध, मान, माया लोभ है। हम नाम, स्थापना, द्रव्य से जैन हैं, पर भाव से जैन कोई विरला ही होगा। हमें भाव से जैन होना है। समीचीन परिश्रम, व समीचीन खर्च करना है। इसमें विवेक की आवश्यकता है। भौतिक चकाचौंध से सुख प्राप्त करना, अपने आपको धोखा देना है।


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