वास्तव में दूसरे की सेवा करने में हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं। दूसरों की सेवा में निमित्त बनकर अपने अंतरंग में उतरना ही सबसे बड़ी सेवा है।
वैयावृत्य का अर्थ है - सेवा, सुश्रुषा, अनुग्रह, उपकार। सेवा की चर्चा करते ही हमारा ध्यान पड़ोसी की ओर चला जाता है। बचाओ शब्द कान में आते ही हम देखने लग जाते हैं कि किसने पुकारा है, कौन अरक्षित है और हम उनकी मदद के लिये दौड़ पड़ते हैं। किन्तु अपने पास में जो आवाज उठ रही है उसकी ओर आज तक हमारा ध्यान नहीं गया। सुख की खोज में निकले हुए पथिक की वैयावृत्ति आज तक किसी ने नहीं की। सेवा, तभी हो सकती है जब हमारे अन्दर सभी के प्रति अनुकम्पा जागृत हो जाये। अनुकम्पा के अभाव में न हम अपनी सेवा कर सकते हैं और न दूसरे की ही सेवा कर सकते हैं।
सेवा किसकी ? ये प्रश्न बड़ा जटिल है। लौकिक दृष्टि से हम दूसरे की सेवा भले कर लें किन्तु पारमार्थिक क्षेत्र में सबसे बड़ी सेवा अपनी ही हो सकती है। आध्यात्मिक दृष्टि से किसी अन्य की सेवा हो ही नहीं सकती। भगवान का उपकार भी उसी को प्राप्त हो सकता है जो अपना उपकार करने में स्वयं अपनी सहायता करते हैं। दूसरों का सहारा लेने वाले पर भगवान कोई अनुग्रह नहीं करते। सेवा करने वाला वास्तव में अपने ही मन की वेदना मिटाता है। यानि अपनी ही सेवा करता है। दूसरे की सेवा में अपनी ही सुख-शांति की बात छिपी रहती है।
मुझे एक लेख पढ़ने को मिला। उसमें लिखा था कि इंग्लैण्ड का गौरव उसके सेवकों में निहित है। किन्तु सच्चा सेवक कौन ? तो एक व्यक्ति कहता है कि चाहे सारी सम्पति चली जाय, चाहे सूर्य का आलोक भी हमें प्राप्त न हो किन्तु हम अपने देश के श्रेष्ठ कवि शेक्सपियर को किसी कीमत पर नहीं छोड़ सकते। वह देश का सच्चा सेवक है कहा भी है- "जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि"। ठीक है, कवि गूढ़ तत्व का विश्लेषण कर सकता है किन्तु एक काम तो वह भी नहीं कर सकता, वह "निजानुभवी नहीं बन सकता।" ऐसा कहा जा सकता है कि जहाँ न पहुँचे कवि, वहाँ पहुँचे निजानुभवी-पाश्चात्य देश शब्दों को महत्व अधिक देते हैं जबकि भारत देश अनुभव को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता है। कवि और चित्रकार प्रकृति के चित्रण में सक्षम है किन्तु यही मात्र हमारा लक्ष्य नहीं, तट नहीं। स्वानुभव ही गति है और हमारा लक्ष्य भी है। स्वानुभवी बनने के लिये स्व-सेवा अनिवार्य है । स्वयंसेवक बनो, पर सेवक मत बनो। मात्र भगवान् के सेवक भी स्वयंसेवक नहीं बन पाते। 'खुदा का बन्दा' बनना आसान है किन्तु 'खुद का बन्दा' बनना कठिन है। खुद के बन्दे बनो। भगवान् की सेवा आप क्या कर सकेंगे ? वे तो निर्मल और निराकार बन चुके हैं। उनके समान निर्मल और निराकार बनना ही उनकी सच्ची सेवा है।
हम शरीर की तड़पन तो देखते हैं किन्तु आत्मा की पीड़ा नहीं पहचान पाते। यदि हमारे शरीर में कोई रात को भी सुई चुभी दे तो तत्काल हमारा समग्र उपयोग उसी स्थान पर केन्द्रित हो जाता है। हमें बड़ी वेदना होती है किन्तु आत्म-वेदना को हमने आज तक अनुभव नहीं किया। शरीर की सड़ांध का हम इलाज करते हैं किन्तु अपने अंतर्मन की सड़ांध/उत्कट दुर्गध को हमने कभी असह्य माना ही नहीं। आत्मा में अनादि से बसी हुई इस दुर्गध को निकालने का प्रयास ही वैयावृत्य का मंगलाचरण है।
हमारे गुरुवर आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने ‘कर्तव्य पथ प्रदर्शन' नाम के अपने ग्रन्थ में एक घटना का उल्लेख किया है। एक जज साहब कार में जा रहे हैं अदालत की ओर। मार्ग में देखते हैं कि एक कुत्ता नाली में फँसा हुआ है। जीवैषणा है उसमें किन्तु प्रतीक्षा है कि कोई आ जाये और उसे कीचड़ से बाहर निकाल दे। जज साहब कार रुकवाते हैं और पहुँच पाते हैं उस कुत्ते के पास। उनके दोनों हाथ नीचे झुक जाते हैं और झुककर वे उस कुत्ते को निकाल कर सड़क पर खड़ा कर देते हैं। सेवा वही कर सकता है जो झुकना जानता है। बाहर निकलते ही उस कुत्ते ने एक बार जोर से सारा शरीर हिलाया और पास खड़े जज साहब के कपड़ों पर ढेर सारा कीचड़ लग गया। सारे कपड़ों पर कीचड़ के धब्बे लग गये। किन्तु जज साहब घर नहीं लौटे। उन्हीं वस्त्रों में पहुँच गये अदालत में। सभी चकित हुए किन्तु जज साहब के चेहरे पर अलौकिक आनन्द की अद्भुत आभा खेल रही थी। वे शांत थे। लोगों के बार-बार पूछने पर बोले-मैंने अपने हृदय की तड़पन मिटाई है, मुझे बहुत शांति मिली है।
वास्तव में, दूसरे की सेवा करने में हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं। दूसरों की सेवा हम कर ही नहीं सकते। दूसरे तो मात्र निमित्त बन सकते हैं। उन निमित्तों के सहारे अपने अंतरंग में उतरना, यही सबसे बड़ी सेवा है। वास्तविक सुख स्वावलम्बन में है। आरम्भ में छोटे-छोटे बच्चों को सहारा देना होता है किन्तु बड़े होने पर उन बच्चों को अपने पैरों पर बिना दूसरे के सहारे खड़े होने की शिक्षा देनी होगी। आप हमसे कहें कि महाराज आप उस कुत्ते को कीचड़ में से निकालेंगे या नहीं, तो हमें कहना होगा कि हम उसे निकालेंगे नहीं। हाँ, उसको देखकर अपने दोषों का शोधन अवश्य करेंगे। आप सभी को देखकर भी हम अपना ही परिमार्जन करते हैं क्योंकि हम सभी मोह कर्दम में फँसे हुए हैं। बाह्य कीचड़ से अधिक घातक यह मोह-कर्दम है।
आपको शायद याद होगा हाथी का किस्सा जो कीचड़ में फंस गया था। वह जितना निकलने का प्रयास करता उतना अधिक उसी कीचड़ में धंसता जाता था। उसके निकलने का एक ही मार्ग था कि कीचड़ सूर्य के आलोक से सूख जाये। इसी तरह आप भी संकल्पों-विकल्पों के दल-दल में फँस रहे हो। अपनी ओर देखने का अभ्यास करो, तब अपने आप ही ज्ञान की किरणों से यह मोह की कीचड़ सूख जायेगी। बस, अपनी सेवा में जुट जाओ, अपने आप को कीचड़ से बचाने का प्रयास करो। भगवान महावीर ने यही कहा है- 'सेवक बनो स्वयं के' और खुदा ने भी यही कहा है -खुद का बन्दा बन। एक सज्जन जब भी आते हैं एक अच्छा शेर सुनाकर जाते हैं। हमें याद हो गया
अपने दिल में डूबकर पा ले, सुरागे जिंदगी।
तू अगर मेरा नहीं बनता, न बन, अपना तो बन॥