धर्म की बात सुनने का अधिकार जीव मात्र को है। ये बात अलग है कि सुनने के उद्देश्य की पूर्ति कौन करता है ? भगवान् महावीर स्वामी के समवसरण की रचना होने के बाद देवों से खचा-खच भरा था समवशरण फिर भी वाणी नहीं खिरी, क्योंकि भगवान् को एक भव्य मुमुक्षु मनुष्य की आवश्यकता थी। दुनिया की बात तो किसी से भी की जा सकती है किन्तु मोक्ष की बात मुमुक्षु से ही की जाती है।
अहिंसा धर्म और मोक्ष की बात सुनकर उसके उद्देश्य की पूर्ति मनुष्य ही कर सकता है और कुछ अंशों में तिर्यच भी कर सकते हैं। देव मोक्ष की बात सुनते है परन्तु उसका पालन नहीं कर सकते।
कुछ लोग प्रतिज्ञा किसी के सामने लेते हैं और कुछ अपने भीतर ही भीतर स्वयं ले लेते हैं। मनुष्य सुनता है, गुनता (विचार करता) है किन्तु बोलता भी है। तिर्यच सुनता है, गुनता है परन्तु बोलता नहीं। इसी कारण तिर्यच जन्म लेने के कुछ समय बाद सम्यक दर्शन प्राप्त कर सकता है। मनुष्य कम से कम ८ वर्ष अंतर्मुहूर्त में कर पाता है। मनुष्य स्वयं उलझता है और उलझाता है। दूसरों को फंसाने के लिए जाल बिछाता है, किन्तु तिर्यच ऐसा नहीं करते इसीलिये सम्यक दर्शन प्राप्त करने की भूमिका मनुष्य से पहले बन जाती है।
संकल्प चारित्र की कोटी में आता है। लिये गये संकल्प के प्रति आस्था है या नहीं ये मनुष्य के साथ घटित होता है (यदि नहीं है तो द्रव्य लिंगी कहा जाता है) किन्तु तिर्यचों को आज तक द्रव्य लिंगी नहीं कहा। आज लोग कहते हैं पहले सम्यक दर्शन प्राप्त करो, बाद में चारित्र अंगीकार करो जबकि ऐसा एकान्त नियम नहीं है। मनुष्य की बात क्या, मूक जानवर भी चुटकी बजाते-बजाते सम्यक दर्शन के साथ-साथ चारित्र अंगीकार कर लेते हैं, किन्तु मूक तिर्यच बताते नहीं कि मैंने ऐसा संयम अंगीकार किया है। वे सोचते है कि जीवन का सही रास्ता यही है। वे व्रत संयम लेते समय कोई शर्त नहीं रखते कि मुझे इसमें यह छूट मिल जाये इसीलिये वे अपने व्रतों में फैल न होते हुए अपना कल्याण कर जाते हैं।
जंगल में रहने वाले एक मूक प्राणी ने संकल्प लिया कि मैं रात्रि में पानी नहीं पीऊँगा। एक दिन उसे पानी नहीं मिला। प्यास बहुत सता रही थी। खोजते-खोजते बहुत समय हो गया फिर उसे एक हरा भरा वृक्ष दिखाई दिया। उसने सोचा वहाँ पानी होना चाहिए। पानी की आशा में वहाँ गया। वहाँ उसे एक बावड़ी दिखाई दी। उसमें देखा पानी भी है प्यास बुझाने के लिये नीचे बावड़ी में उतरा। पानी के पास तक पहुँचते अंधेरा हो जाता है। ऊपर आता है, देखता है कि अभी दिन है। पुन: नीचे जाता है तो अंधेरा पाता है, ऊपर आता है, दिन का उजाला पाता है। पुन: नीचे जाता है, इस प्रकार ऊपर नीचे चढ़ते उतरते प्यासा ही मर जाता है, पर अंधेरा होने से अपना संकल्प नहीं तोड़ता।
उसकी जगह मनुष्य होता तो पानी पी लेता और कहता महाराज से प्रायश्चित ले लैंगा, महाराज ने ही तो प्रतिज्ञा दी थी और यह भी पूछ लेता कि आगे भी ऐसा कर सकता हूँ क्या ? यह मनुष्य कितना विषयों के अधीन हुआ है ये कुछ भी कहा नहीं जा सकता है। यह मनुष्य प्रण को नहीं, प्राणों को देखता है। उस मूक प्राणी ने प्रण नहीं तोड़ा भले ही प्राण छोड़ दिये।
हमारे अंदर राग-द्वेष, आकुलतादि रूप जो परिणाम होते हैं वे सब कर्म बंध के कारण होते हैं। हम राग-द्वेष करके अपनी आत्मा का ही घात करते चले जाते हैं। राग-द्वेष करना ही भाव हिंसा है। द्रव्य हिंसा होने से पहले भाव हिंसा हो जाती है। भावों द्वारा हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील आदि होते ही रहते हैं इसका पता लगाना बहुत कठिन होता है।
महावीर भगवान् का मार्ग आत्माश्रित है। अत: आत्माश्रित होने से निज की ओर देखने से सरल है, और यदि पर की ओर देखते हैं तो बहुत कठिन है।
एक सियार भी अपनी स्मृति के माध्यम से अपने भाव ताजा बनाये रख सकता है और तोड़ता नहीं। इसे कहते हैं आस्था और संयम। आस्था में कमी आने से ज्ञान में कमी आ जाती है और संयम डांवाडोल होने लगता है। आस्था ज्ञान और संयम में कमी होने से विकास तो दूर रहा, उल्टे विनाश की ओर कदम बढ़ जाते हैं। रत्नत्रय की उन्नति सो ज्ञान का विकास है, वही आत्मा का विकास है। जैसे-जैसे ज्ञान को विषयों की ओर ले जाते हैं, वैसे-वैसे ज्ञान फकीर होता चला जाता है, ज्ञान का हास्य होता चल जाता है। यदिजनक हास्य होता है तो आत्मा का हास्य होने लगता है।
मानव एक ऐसा प्राणी है कि एक त्याग करके दूसरा रास्ता निकाल लेता है। इसके हाथ में संविधान बनाना और तोड़ना दोनों है। संविधान नियम कानून की व्यवस्था मनुष्यों के लिये ही है। रात्रि भ्रमण और खान-पान आदि में अधिक विषमता मनुष्यों में होती है, पशु पक्षियों में नहीं। पशु जो हिंसक है वे रात्रि में ही निकलते हैं, जो अहिंसक हैं वे दिन में ही निकलते हैं रात भर शांत बैठते हैं, पशु दिन में चरते हैं रात को जुगाली करते हैं, लेकिन मनुष्य दिन में भी चरता है और रात में भी चरता है। पशु-पक्षी अपनी मर्यादा में रहते हैं, मनुष्य की कोई मर्यादा नहीं रही।
सूर्य में आतप रहता है जो तेजमय होता है, उसमें एक विशेष प्रकार की ऊर्जा रहती है जो भोजन पचाने में सहायक होती है। यहाँ रात्रि भोजन पानी के त्याग का सियार (तिर्यच) प्राणि का उदाहरण इसीलिए दिया कि मनुष्यों में जागृति आ जाये। यह सियार रात्रि पानी त्याग के कारण मर कर प्रीतिकर बना जिसे देख कर सब के मन में उसके प्रति प्रीति जाग जाती थी।
सोलहवें स्वर्ग में तिर्यच संयमासंयम चारित्र के माध्यम से पहुँच जाता है। स्वर्ग की अधिकांश सीटें तिर्यचों से भरती हैं, किन्तु मनुष्य इतना होशियार है कि वह स्वर्ग में भी मुखिया बनकर बैठता है। मनुष्य जीवन के ये क्षण इतने कीमती हैं कि इन्हें शब्दों में नहीं कहा जा सकता है। एक व्यक्ति हजारों लाखों लोगों का एक साथ विकास कर सकता है। गुणस्थान चेंज (परिवर्तन) करा सकता है। वह स्वयं भगवान् बन सकता है और दूसरों को भगवान् बनाने में कारण हो सकता है।
प्रभु को देखते ही असंख्यात जीवों का चढ़ा विषय भोगों का जहर एक साथ उतर सकता है। यदि पेड़ पौधों की जड़ें विषाक्त जल से जल जाती हैं तो शुद्ध जल से कलियाँ खिल जाती हैं, ऐसे ही हमारे बीच में रहने वाले मनुष्यों के द्वारा ही यदि प्राणी विषाक्त जीवन जी सकते हैं तो अमृतमय कमल के समान खिला जीवन भी जी सकते हैं।
यहाँ आने के बाद हम जीवन के निर्वाण की बात नहीं सोच रहे हैं तो कहाँ सोचेंगे। सोचे विचारे बिना यदि कार्य करते हैं तो अफसोस ही प्राप्त होता है। तारंगा की इस पावन भूमि पर साढ़े तीन करोड़ मुनियों ने निर्वाण पद को प्राप्त किया, ऐसी पावन भूमि पर आना अपना परम सौभाग्य मानना चाहिए और अपने आपको धन्य मानना चाहिए।
आप विदेशी को देशी बनाना चाहते हैं और आप स्वयं देशी रहना नहीं चाहते। आप विदेशी सामान अपनाना चाहते हैं। यहाँ भारत के पशु भी अहिंसा का पालन कर रहे हैं और विदेशों में मनुष्य भी नहीं कर पा रहे हैं। सियार की प्रतिज्ञा पालन करने की निष्ठा मानव मन को झकझोर देती है।
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज की जय
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