कुलरूवजादिबुद्धिसु तवसुदसीलेसु गारवं किंचि।
जो ण वि कुव्वदि समणो मद्वधम्मं हवे तस्स ॥
जो मनस्वी पुरुष कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, शास्त्र और शीलादि के विषय में थोड़ा सा भी घमण्ड नहीं करता, उसके मार्दव धर्म होता है। आज पर्व का दूसरा दिन है। कल उत्तम क्षमा के बारे में आपने सुना, सोचा, समझा और क्षमा भाव धारण भी किया है। वैसे देखा जाए तो ये सब दस धर्म एक में ही गर्भित हो जाते हैं। एक के आने से सभी आ जाते हैं। आचार्यों ने सभी को अलग-अलग व्याख्यायित करके हमें किसी न किसी रूप में धर्म धारण करने की प्रेरणा दी है। जैसे-रोगी के रोग को दूर करने के लिए विभिन्न प्रकार से चिकित्सा की जाती है। दवा अलग-अलग अनुपात के साथ सेवन करायी जाती है। कभी दवा पिलाते हैं, कभी खिलाते हैं और कभी इंजेक्शन के माध्यम से देते हैं। बाह्य उपचार भी करते हैं। वर्तमान में तो सुना है कि रंगों के माध्यम से भी चिकित्सा पद्धति का विकास किया जा रहा है। कुछ दवाएँ सुंघाकर भी इलाज करते हैं। इतना ही नहीं, जब लाभ होता नहीं दिखता तो रोगी के मन को सान्त्वना देने के लिए समझाते हैं कि तुम जल्दी ठीक हो जाओगे। तुम रोगी नहीं हो। तुम तो हमेशा से स्वस्थ हो अजर-अमर हो। रोग आ ही गया है तो चला जायेगा, घबराने की कोई बात नहीं है। ऐसे ही आचार्यों ने अनुग्रह करके विभिन्न धर्मों के माध्यम से आत्म-कल्याण की बात समझायी है।
प्रत्येक धर्म के साथ उत्तम विशेषण भी लगाया है। सामान्य क्षमा या मार्दव धर्म की बात नहीं है, जो लौकिक रूप से सभी धारण कर सकते हैं। बल्कि विशिष्ट क्षमा भाव जो संवर और निर्जरा के लिए कारण है, उसकी बात कही गयी है। जिसमें दिखावा नहीं है, जिसमें किसी सांसारिक ख्याति, पूजा, लाभ की आकांक्षा नहीं है। यही उत्तम विशेषण का महत्व है।
दूसरी बात यह है कि क्षमा, मार्दव आदि तो हमारा निजी स्वभाव है, इसलिए भी उत्तम धर्म है। इनके प्रकट हुए बिना हमें मुक्ति नहीं मिल सकती। आज विचार इस बात पर भी करना है कि जब मार्दव हमारा स्वभाव है तो वह हमारे जीवन में प्रकट क्यों नहीं है? तो विचार करने पर ज्ञात होगा कि जब तक मार्दव धर्म के विपरीत मान विद्यमान है तब तक वह मार्दव धर्म को प्रकट नहीं होने देगा। केवल मृदुता लाओ, ऐसा कहने से काम नहीं चलेगा किन्तु इसके विपरीत जो मान कषाय है उसे भी हटाना पड़ेगा। जैसे हाथी के ऊपर बंदी का बैठना शोभा नहीं देता, ऐसे ही हमारी आत्मा पर मान का होना शोभा नहीं देता। यह मान कहाँ से आया? यह भी जानना आवश्यक है। जब ऐसा विचार करेंगे तो मालूम पड़ेगा कि अनन्त काल से यह जीव के साथ है और एक तरह से जीव का धर्म जैसा बन बैठा है। इससे छुटकारा पाने के दो ही उपाय है या कहो अपने वास्तविक स्वरूप को पाने के दो ही उपाय हैं। एक विधि रूप है तो दूसरा निषेध रूप है। जैसे रोग होने पर कहा जाए कि आरोग्य लाओ, तो आरोग्य तो रोग के अभाव में ही आयेगा। रोग के अभाव का नाम ही आरोग्य है। इसी प्रकार मृदुता को पाना हो तो यह जो कठोरता आकर छिपकर बैठी है उसे हटाना होगा। जानना होगा कि इसके आने का मार्ग कौन सा है, उसे बुलाने वाला और इसकी व्यवस्था करने वाला कौन है? तो आचार्य कहते हैं कि हम ही सब कुछ कर रहे हैं। जैसे अग्नि राख से दबी हो तो अपना प्रभाव नहीं दिखा पाती, ऐसे ही मार्दव धर्म का मालिक यह आत्मा कर्मों से दबी हुई है और अपने स्वभाव को भूलकर कठोरता को अपनाती जा रही है।
विचार करें, कि कठोरता को लाने वाला प्रमुख कौन है? अभी आप सबकी अपेक्षा ले लें। तो संज्ञी पंचेन्द्रिय के पाँचों इन्द्रियों में से कौन सी इन्द्रिय कठोरता लाने का काम करती है? क्या स्पर्शन इन्द्रिय से कठोरता आती है, या रसना इन्द्रिय से आती है, या घ्राण या चक्षु या श्रोत्र, किस इन्द्रिय से कठोरता आती है? तो कोई भी कह देगा कि इन्द्रियों से कठोरता नहीं आती। यह कठोरता मन की उपज है। एक इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक कोई भी जीव ऐसे अभिमानी नहीं मिलेंगे जैसे कि मन वाले और विशेषकर मनुष्य होते हैं। थोड़ा सा भी वित्त-वैभव बढ़ जाए तो चाल में अन्तर आने लगती है। मनमाना तो यह मन ही है। मन के भीतर से ही माँग पैदा हेाती है। वैसे मन बहुत कमजोर है, वह इस अपेक्षा से कि उसका कोई अंग नहीं है लेकिन यह अंग-अंग को हिला देता है। विचलित कर देता है। जीवन का ढाँचा परिवर्तित कर देता है और सभी पाँचों इन्द्रियाँ भी मन की पूर्ति में लगी रहती हैं।
मन सबका नियन्ता बनकर बैठ जाता है। आत्मा भी इसकी चपेट में आ जाती है और अपने स्वभाव को भूल जाती है। तब मृदुता के स्थान पर मान और मद आ जाता है। इन्द्रियों को खुराक मिले या न मिले चल जाता है लेकिन मन को खुराक मिलनी चाहिए। ऐसा यह मन है। और इसे खुराक मिल जाये, इसके अनुकूल काम हो जाए तो यह फूला नहीं समाता और नित नयी माँगें पूरी करवाने में चेतना को लगाये रखता है। जैसे आज कल कोई विद्यार्थी College (महाविद्यालय) जाता है। प्रथम वर्ष का ही अभी विद्यार्थी है अभी-अभी College (महाविद्यालय) का मुख देखा है। वह कहता है-पिताजी! हम कल से College (महाविद्यालय) नहीं जायेंगे। तो पिताजी क्या कहें? सोचने लगते हैं कि अभी एक दिन तो हुआ है और नहीं जाने की बात कहाँ से आ गयी? क्या हो गया? तो विद्यार्थी कहता है कि पिताजी आप नहीं समझेंगे नयी पढ़ाई है। College (महाविद्यालय) जाने के योग्य सब सामग्री चाहिए। कपड़े अच्छे चाहिए।Pocket (जेब) में पैसे भी चाहिए और University (विश्वविद्यालय) बहुत दूर है, रास्ता बड़ा चढ़ाव वाला है इसलिए स्कूटर भी चाहिए। उस पर बैठकर जायेंगे इसके बिना पढ़ाई सम्भव नहीं है।
यह कौन करवा रहा है? यह सब मन की ही करामात है। यदि इसके अनुरूप मिल जाए तो ठीक अन्यथा गड़बड़ हो जायेगी। जैसे सारा जीवन ही व्यर्थ हो गया, ऐसा लगने लगता है। कपड़े चाहिए ऐसे कि बिल्कुल टिनोपाल में तले हुए हों, हाँ जैसे पूरियाँ तलती है। यह सब मन के भीतर से आया हुआ मान-कषाय का भाव है। सब लोग क्या कहेंगे कि College (महाविद्यालय) का छात्र होकर ठीक कपड़े पहनकर नहीं आता। एक छात्र ने हमसे पूछा था कि सचमुच ऐसी स्थिति आ जाती है तब हमें क्या करना चाहिए? तो हमने कहा कि ऐसा करो टोपी पहन लेना और धोती कुर्ता पहनकर जाना, वह हँसने लगा। बोला यह तो बड़ा कठिन है। टोपी पहनना तो फिर भी सम्भव है लेकिन धोती वगैरह पहनूँगा तो सब गड़बड़ हो जायेगी। सब से अलग हो जाऊँगा। लोग क्या कहेंगे? हमने कहा कि ऐसा मन में विचार ही क्यों लाते हो कि लोग क्या कहेंगे? अपने को प्रतिभा सम्पन्न होकर पढ़ना है। विद्यार्थी को तो विद्या से ही प्रयोजन होना चाहिए।
आज यही हो रहा है कि व्यक्ति बाहरी चमक-दमक में ऐसा झूम जाता है कि सारी की सारी शक्ति उसी में व्यर्थ ही व्यय होती चली जाती है और वह लक्ष्य से चूक जाता है। यह सब मन का खेल है। मान कषाय है। मान-सम्मान की आकांक्षा काठिन्य लाती है और सबसे पहले मन में कठोरता आती है, फिर बाद में वचनों में और तदुपरान्त शरीर में भी कठोरता आने लगती है। इस कठोरता का विस्तार अनादिकाल से इसी तरह हो रहा है और आत्मा अपने मार्दव-धर्म को खोता जा रहा है। इस कठोरता का, मान कषाय का परित्याग करना ही मार्दव धर्म के लिए अनिवार्य है।
आठ मदों में एक मद ज्ञान का भी है। आचार्यों ने इसी कारण लिख दिया है कि -ज्ञानस्य फल क? उपेक्षा, अज्ञाननाशी वा' उपेक्षा भाव आना और अज्ञान का नाश होना ही ज्ञान का फल है। उपेक्षा का अर्थ है रागद्वेष की हानि होना और गुणों का आदान (ग्रहण) होना। यदि ऐसा नहीं होता तो वह ज्ञान कार्यकारी नहीं है। ‘ले दीपक कुएँ पड़े' वाली कहावत आती है कि उस दीपक के प्रकाश की क्या उपयोगिता जिसे हाथ में लेकर भी यदि कोई कूप में गिर जाता है। स्व-पर का विवेक होना ही ज्ञानी की सार्थकता है। पर को हेय जानकर भी यदि पर के विमोचन का भाव जागृत नहीं होता और ज्ञान का मद आ जाता है कि मैं तो ज्ञानी हूँ, तो हमारा यह ज्ञान एकमात्र बौद्धिक व्यायाम ही कहलायेगा।
ज्ञान का अभिमान व्यर्थ है। ज्ञान का प्रयोजन तो मान की हानि करना है, पर अब तो मान की हानि होने पर मानहानि का कोर्ट में दावा होता है। मार्दव धर्म तो ऐसा है कि जिसमें मान की हानि होना आवश्यक है। यदि मान की हानि हो जाती है तो मार्दव धर्म प्रकट होने में देर नहीं लगती।
आप शान्तिनाथ भगवान् के चरणों में श्रीफल चढ़ाते हैं तो भगवान् श्रीफल के रूप में आपसे कोई सम्मान नहीं चाहते न ही हर्षित होते हैं, बल्कि वे तो अपनी वीतराग मुद्रा से उपदेश देते हैं कि जो भी मान कषाय है वह सब यहाँ लाकर विसर्जित कर दो। यह जो मन, मान कषाय का Store (भण्डार) बना हुआ है, उसे खाली कर दो। जिसका मन, मान कषाय से खाली है वही वास्तविक ज्ञानी है। उसी के लिए केवलज्ञान रूप प्रमाण-ज्ञान की प्राप्ति हुआ करती है। वही तीनों लोकों में सम्मान पाता है।
हम पूछते हैं कि आपको केवलज्ञान चाहिए या मात्र मान-कषाय चाहिए? तो कोई भी कह देगा कि हमें केवलज्ञान चाहिए। लेकिन केवलज्ञान की प्राप्ति तो अपने स्वरूप की ओर, अपने मार्दव धर्म की ओर प्रयाण करने से होगी। अभी तो हम स्वरूप से विपरीत की प्राप्ति होने में ही अभिमान कर रहे हैं। वास्तव में देखा जाए तो इन्द्रिय ज्ञान, ज्ञान नहीं है। इन्द्रिय-ज्ञान तो पराश्रित ज्ञान है। स्वाश्रित ज्ञान तो आत्म-ज्ञान या केवलज्ञान है। जो इन्द्रिय ज्ञान और इन्द्रिय के विषयों में आसक्त नहीं होता, वह नियम से अतीन्द्रिय ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, सर्वज्ञ दशा को प्राप्त कर लेता है।
'मनोरपत्यं पुमान्निति मानवः' कहा गया है कि मनु की संतान मानव है। मनु को अपने यहाँ कुलकर माना गया है। जो मानवों को एक कुल की भाँति एक साथ इकट्ठे रहने का उपदेश देता है, वही कुलकर है। सभी समान भाव से रहें। छोटे-बड़े का भेदभाव न आवे तभी मानव होने की सार्थकता है। अपने मन को वश में करने वाले ही महात्मा माने गये हैं। मन को वश में करने का अर्थ मन को दबाना नहीं है, बल्कि मन को समझाना है। मन को दबाने और समझाने में बड़ा अन्तर है। दबाने से तो मन और अधिक तनाव-ग्रस्त हो जाता है, विक्षिप्त हो जाता है। किन्तु मन को यदि समझाया जाये तो वह शान्त होने लगता है। मन को समझाना, उसे प्रशिक्षित करना, तत्व के वास्तविक स्वरूप की ओर ले जाना ही वास्तव में, मन को अपने वश में करना है। जिसका मन संवेग और वैराग्य से भरा है वही इस संसार से पार हो पाता है। जैसे घोड़े पर लगाम हो तो वह सीधा अपने गन्तव्य पर पहुँच जाता है। ऐसे ही मन पर यदि वैराग्य की लगाम हो तो वह सीधा अपने गन्तव्य, मोक्ष तक ले जाने में सहायक होता है।
सभी दश धर्म आपस में इतने जुड़े हुए हैं कि अलग-अलग होकर भी संबंधित हैं। मार्दव धर्म के अभाव में क्षमा धर्म रह पाना संभव नहीं है और क्षमा धर्म के अभाव में मार्दव धर्म टिकता नहीं है। मान-सम्मान की आकांक्षा पूरी नहीं होने पर ही तो क्रोध उत्पन्न हो जाता है। मृदुता के अभाव में छोटी सी बात से मन को ठेस पहुँच जाती है और मान जागृत हो जाता है। जब मान जागृत होता है तो क्रोध की अग्नि भड़कने में देर नहीं लगती।
द्वीपायन मुनि रत्नत्रय को धारण किये हुए थे। वर्षों की तपस्या साथ थी। उस तपस्या का फल, चाहते तो मीठा भी हो सकता था किन्तु वे द्वारिका को जलाने में निमित्त बन गये। दिव्यध्वनि के माध्यम से जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मेरे निमित्त से बारह वर्ष के बाद द्वारिका जलेगी तो यह सोचकर वे द्वारिका से दूर चले गये कि कम से कम बारह वर्ष तक अपने को द्वारिका की ओर जाना ही नहीं है। समय बीतता गया और बारह वर्ष बीत गये होंगे- ऐसा सोचकर वे विहार करते हुए द्वारिका के समीप एक बगीचे में आकर ध्यानमग्न हो गये। वहीं यादव लोग आये और द्वारिका के बाहर फेंकी गई शराब को पानी समझकर पीने लगे। मदिरापान का परिणाम यह हुआ कि यादव लोग नशे में पागल होकर द्वीपायन मुनि को देखकर गालियाँ देने लगे, पत्थर फेंकने लगे। जब बहुत देर तक यह प्रक्रिया चलती रही और द्वीपायन मुनि को सहन नहीं हुआ तो तैजस ऋद्धि के प्रभाव से द्वारिका जलकर राख हो गयी। तन तो सहन कर सकता था लेकिन मन सहन नहीं कर सका और क्रोध जागृत हो गया।
महाराज जी (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी) ने एक बार उदाहरण दिया था। वही आपको सुनाता हूँ। एक गाँव का मुखिया था। सरपंच था। उसी का यह प्रपञ्च है। आप हँसिये मत। उसका प्रपञ्च दिशाबोध देने वाला है। हुआ यह कि एक बार उससे कोई गल्ती हो गयी और उन्हें दंड सुनाया गया। समाज गल्ती सहन नहीं कर सकती ऐसा कह दिया गया और लोगों ने इकट्ठे होकर उसके घर आकर सारी बात कह दो। घर के भीतर उसने भी स्वीकार कर लिया कि गल्ती हो गयी, मजबूरी थी। पर इतने से काम नहीं चलेगा। लोगों ने कहा कि यही बात मञ्च पर आकर सभी के सामने कहना होगी कि मेरी गलती हो गयी और मैं इसके लिए क्षमा चाहता हूँ। फिर दण्ड के रूप में एक रुपया देना होगा। एक रुपया कोई मायने नहीं रखता। वह व्यक्ति करोड़ रुपया देने के लिए तैयार हो गया लेकिन कहने लगा कि मञ्च पर आकर क्षमा मांगना तो सम्भव नहीं हो सकेगा। मान खण्डित हो जायेगा। प्रतिष्ठा में बट्टा लग जाएगा। आज तक जो सम्मान मिलता आया है वह चला जायेगा।
सभी संसारी जीवों की यही स्थिति है। पाप हो जाने पर, गलती हो जाने पर कोई अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है। असल में भीतर मान कषाय बैठा है वह झुकने नहीं देता। पर हम चाहें तो उसकी शक्ति को कम कर सकते हैं और चाहें तो अपने परिणामों से उसे संक्रमित (Transfer) भी कर सकते हैं। उसे अगर पूरी तरह हटाना चाहें तो आचार्य कहते हैं कि एक ही मार्ग है- समता भाव का आश्रय लेना होगा। अपने शांत और मृदु स्वभाव का चिन्तन करना होगा। यही पुरुषार्थ मान-कषाय पर विजय पाने के लिए अनिवार्य है।
आत्मा की शक्ति और कर्म की शक्ति इन दोनों के बीच देखा जाये तो आत्मा अपने पुरुषार्थ के बल से आत्म-स्वरूप के चिन्तन से मान कषाय के उदय में होने वाले परिणामों पर विजय प्राप्त कर सकता है। मान को जीत सकता है। इतना संयम तो कषायों को जीतने के लिए आवश्यक ही है। सम्यग्दर्शन तो जीव जन्म से ही लेकर आ सकता है लेकिन मुक्ति पाने के लिए सम्यग्दर्शन के साथ जो विशुद्धि चाहिए वह चारित्र के द्वारा ही आयेगी। वह अपने आप आयेगी, ऐसा भी नहीं समझना चाहिए। आचार्यों ने कहा है कि आठ साल की उम्र होने के उपरान्त कोई चाहे तो सम्यग्दर्शन के साथ चारित्र को अंगीकार कर सकता है। लेकिन चारित्र अंगीकार करना होगा, तभी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा और मुक्ति मिलेगी। कषायों पर विजय पाने रूप परिणाम, चरित्र को अंगीकार किये बिना आना/होना संभव नहीं है। आत्मा की अनन्त शक्ति भी सम्यक्रचारित्र धारण करने पर ही प्रकट होती है।
एक बात और कहूँ कि सभी कषायें परस्पर एक दूसरे के लिए कारण भी बन सकती है। जैसे मान को ठेस पहुँचती है तो क्रोध आ जाता है। मायाचारी आ जाती है। अपने मान की सुरक्षा का लोभ भी आ जाता है। एक समय की बात है कि एक व्यक्ति एक सन्त के पास पहुँचा। उसने सुन रक्खा था कि सन्त बहुत पहुँचे हुए हैं। उसने पहुँचते ही पहले उन्हें प्रणाम किया और विनयपूर्वक बैठ गया। चर्चा वार्तालाप के बाद उसने कहा कि आप हमारे यहाँ कल का आतिथ्य स्वीकार करिये। अपने यहाँ हम आपको कल के भोजन के लिए निमन्त्रित करते हैं। सन्त जी निमन्त्रण पाने वाले रहे होंगे, इसलिए निमन्त्रण मान लिया। देखो निमन्त्रण 'मान' लिया, इसमें भी 'मान' लगा है। दूसरे दिन ठीक समय पर वह व्यक्ति आदर के साथ उन्हें घर ले गया, अच्छा आतिथ्य हुआ। मान-सम्मान भी दिया। अन्त में जब सन्त जी लौटने लगे तो उस व्यक्ति ने पूछ लिया कि आपका शुभ नाम मालूम नहीं पड़ सका। आपका शुभ नाम मालूम पड़ जाता तो बडी कृपा होगी। सन्त जी ने बड़े उत्साह से बताया कि हमारा नाम शान्तिप्रसाद है। वह व्यक्ति बोला बहुत अच्छा नाम है। मैं तो सुनकर धन्य हो गया, आज मानों शान्ति मिल गयी। वह उनको भेजने कुछ दूर दस बीस कदम साथ गया और उसने फिर से पूछ लिया कि क्षमा कीजिये, मेरी स्मरण शक्ति कमजोर है। मैं भूल गया आपने क्या नाम बताया था? सन्त जी ने उसकी ओर गौर से देखा और कहा कि शान्तिप्रसाद, अभी तो मैंने बताया था। वह व्यक्ति बोला हाँ ठीक-ठीक ध्यान आ गया आपका नाम शान्तिप्रसाद है। अभी जरा दूर और पहुँचे थे कि पुन: वह व्यक्ति बोला कि क्या करूं? कैसा मेरा कर्म का तीव्र उदय है कि मैं बार-बार भूल जाता हूँ। आपने क्या नाम बताया था? अब की बार सन्त जी ने घूर कर उसे देखा और बोले शान्तिप्रसाद, शान्तिप्रसाद- मैंने कहा ना। वह व्यक्ति चुप हो गया और आश्रम पहुँचते-पहुँचते जब उसने तीसरी बार कहा कि एक बार और बता दीजिये आपका शुभ नाम। उसे तो जितनी बार सुना जाए उतना ही अच्छा है। अब सन्त जी की स्थिति बिगड़ गयी, गुस्से में आ गये। बोले क्या कहता है तू। कितनी बार तुझे बताया कि शान्तिप्रसाद, शान्तिप्रसाद! वह व्यक्ति मन ही मन मुस्कराया और बोला, मालूम पड़ गया है कि नाम आपका शान्तिप्रसाद है, पर आप तो ज्वालाप्रसाद हैं। अपने मान को अभी जीत नहीं पाये क्योंकि मान को जरा सी ठेस लगी और क्रोध की ज्वाला भड़क उठी।
बंधुओ! ध्यान रखो जो मान को जीतने का पुरुषार्थ करता है वही मार्दव धर्म को अपने भीतर प्रकट करने में समर्थ होता है। पुरुषार्थ यही है कि ऐसी परिस्थिति आने पर हम यह सोचकर चुप रह जायें कि यह अज्ञानी है। मुझसे हँसी कर रहा है या फिर सम्भव है कि मेरी सहनशीलता की परीक्षा कर रहा है। उसके साथ तो हमारा व्यवहार, माध्यस्थ भाव धारण करने का होना चाहिए। कोई वचन व्यवहार अनिवार्य नहीं है। जो विनयवान हो, ग्रहण करने की योग्यता रखता हो, हमारी बात समझने की पात्रता जिसमें हो, उससे ही वचन व्यवहार करना चाहिए। ऐसा आचार्यों ने कहा है। अन्यथा 'मौन सर्वत्र साधनम्'। मौन सर्वत्र/सदैव अच्छा साधन है।
द्वीपायन मुनि के साथ यही तो हुआ कि वे मौन नहीं रह पाये और यादव लोग भी शराब के नशे में आकर मौन धारण नहीं कर सके।'मदिरापानादिभिः मनस: पराभवो दृश्यते'- मदिरा पान से मन का पराभव होते देखा जाता है। पराभव से तात्पर्य है पतन की ओर चले जाना। अपने सही स्वभाव को भूलकर गलत रास्ते पर मुड़ जाना। गाली के शब्द तो किसी के भी कानों में पड़ सकते हैं लेकिन ठेस सभी को नहीं पहुँचती। ठेस तो उसी के मन को पहुँचती है जिसे लक्ष्य करके गाली दी जा रही है। या जो ऐसा समझ लेता है कि गाली मुझे दी जा रही है। मेरा अपमान किया जा रहा है।
द्वीपायन मुनि को भीतर तो यही श्रद्धान था कि मैं मुनि हूँ। मेरा वैभव समयसार है। समता परिणाम ही मेरी निधि है। मार्दव मेरा धर्म है। मैं मानी नहीं हूँ, लोभी नहीं हूँ। मेरा यह स्वभाव नहीं है। रत्नत्रय धर्म उनके पास था, उसी के फलस्वरूप तो उन्हें ऋद्धि प्राप्त हुई थी। लेकिन मन में पर्याय बुद्धि जागृत हो गयी कि गाली मुझे दी जा रही है। आचार्य कहते हैं कि ‘पञ्जयमूढ़ा हि परसमया' जो पर्याय में मुग्ध हैं, मूढ़ है वह पर-समय है। पर्याय का ज्ञान होना बाधक नहीं है परन्तु पर्याय में मूढ़ता आ जाना बाधक है। पर्याय बुद्धि ही मान को पैदा करने वाली है। पर्याय बुद्धि के कारण उनके मन में आ गया कि वे मेरे ऊपर पत्थर बरसा रहे हैं, मुझे गाली दी जा रही है और उपयोग की धारा बदल गयी। उपयोग में उपयोग को स्थिर करना था, पर स्थिर नहीं रख पाये। उपयोग आत्म-स्वभाव के चिन्तन से हटकर बाहर पर्याय में लग गया और मान जागृत हो गया।
जो अपने आप में स्थित है, स्वस्थ है उसे मान-सम्मान सब बराबर है। उसे कोई गाली भी दे तो वह सोचता है कि अच्छा हुआ अपनी परख करने का अवसर मिल गया। मालूम पड़ जायेगा कि कितना मान कषाय अभी भीतर शेष है। यदि ठेस नहीं पहुँचती तो समझना कि उपयोग, उपयोग में है। ज्ञानी की यही पहचान है कि वह अपने स्वभाव में अविचल रहता है। वह विचार करता है कि दूसरे के निमित्त से मैं अपने परिणाम क्यों बिगाड़ें? अगर अपने परिणाम बिगाड़ेंगा तो मेरा ही अहित होगा। कषाय दुख का कारण है। पाप-भाव दुख ही है। आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में कहा है 'दुखमेव वा', आनन्द तो तब है जब दुख भी ‘मेवा' हो जाये। सुख और दुख दोनों में साम्य भाव आ जाये।
मान कषाय का विमोचन करके ही हम अपने सही स्वास्थ्य का अनुभव कर सकते हैं, साम्य भाव ला सकते हैं। जैसे दूध उबल रहा है अब उसको अधिक नहीं तपाना है तब या तो उसे सिगडी से नीचे उतार कर रख दिया जाता है या फिर अग्नि को कम कर देते हैं। तब अपने आप वह धीरेधीरे अपने स्वभाव में आ जाता है, स्वस्थ हो जाता है अर्थात् शान्त हो जाता है और पीने योग्य हो जाता है। ऐसे ही मान कषाय के उबाल से अपने को बचाकर हम अपने स्वास्थ्य को प्राप्त कर सकते हैं। मान का उबाल शान्त होने पर ही मार्दव धर्म प्राप्त होता है। मान को अपने से अलग कर दें या कि अपने को ही मान कषाय से अलग कर लें, तभी मार्दव धर्म प्रकट होगा।
अन्त में इतना ही ध्यान रखिये कि अपने को शान्तिप्रसाद जैसा नहीं करना है। हाँ, यदि कोई गाली दे, कोई प्रतिकूल वातावरण उपस्थित करें तो अपने को शान्तिनाथ भगवान् को नहीं भूलना है। अपने परिणामों को संभालना अपने आत्म-परिणामों की सँभाल करना ही धर्म है। यही करने योग्य कार्य है। जिन्होंने इस करने योग्य कार्य को सम्पन्न कर लिया वे ही कृतकृत्य कहलाते हैं। वही सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं, जिनकी मृदुता को अब कोई खण्डित नहीं कर सकता। हम भी मृदुता के पिण्ड बनें और जीवन को सार्थक करें।