अशुद्धि का अंत कर जिन्होंने परम पद प्राप्त कर लिया है, हम उन्हीं सिद्ध परमेष्ठी की आराधना करने के लिये यहाँ पर एकत्रित हुए हैं। इस आत्मा में विद्यमान अशुद्धि की आदि नहीं किन्तु अन्त अवश्य है। दो छोर हैं एक आदि और एक अन्त किन्तु हमारी यात्रा का प्रवाह इन दो छोरों से परे अनादि अनन्त हैं। तराजू के पलड़ो की तरह भारीपन/बोझ नीचे आता है तथा हल्की वस्तु ऊपर उठती है। यदि हम अपने जीवन को दोषरहित, पाप के भार से रिक्त करेंगे तो वह ऊपर उठ जायेगा। सिद्धत्व की प्राप्ति के लिये जीवन को खाली करना सर्वप्रथम आवश्यक है। हमारे अन्दर विद्यमान इस संभावना के संरक्षण की भावना सद्भावना पर ही निर्भर है।
आप सभी अनेकान्त के उपासकों को ७ दिन तक इस एकांत स्थान पर आकर धर्मध्यान करने का अवसर प्राप्त हो रहा है। यह बहुत बड़े पुण्योदय/सौभाग्य की बात है। इस शांत शीतल निराकुल स्थान के बारे में क्या कहूँ‘यहाँ ध्यान लगाने की आवश्यकता नहीं, ध्यान स्वयं ही लग जाता है।” आनंद और सुख तुम्हें सब कुछ मिल जायेगा आवश्यकता है केवल सोये हुए आत्म भगवान् को जगाने की। यही जैन दर्शन का उद्देश्य और उसकी विशेषता है। जैनधर्म का मूल अहिंसा और अपरिग्रह है किन्तु हम हैं कि आवश्यकता से भी अधिक वस्तुओं के संग्रह में लगे हुए हैं। एक-एक कौर भोजन करने वाला यह 'कवलाहारी' इंसान मनोंमन संग्रह की उत्सुकता रखता है। यही संग्रहवृत्ति उसके पतन का कारण बनती है। हम पंच परमेष्ठी की आराधना भक्ति कर अपने जीवन को उन्नत बनाने का प्रयास करें।
‘महावीर भगवान् की जय!'